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चमोली आपदाः 1972 को पिंडर नदी में भी आई थी बाढ़, जलीय जीवों की हुई थी भारी क्षति

चमोली के रैणी गांव के पास से गुजरने वाली ऋषिगंगा नदी में ग्लेशियर टूटने से जो जल प्रलय की घटना हुई ठीक वैसे ही ग्लेशियरों के एकाएक पिघलने और उसके कारण हुए भूस्खलन से 6 जून 1972 को पिडंर नदी में भी बाढ़ आई थी।


इस घटना के चमश्दीद रहे लोग बताते हैं कि यह ठीक बरसात से पहले की घटना थी। केन्द्रीय जल आयोग से सेवानिवृत सर्वेयर पुष्कर सिंह शाह ने बताया कि इस कारण पिडंर नदी में भी लाखों टन मलबा और गाद आई थी। वो अलग बात है कि इस समय इस नदी पर कोई जल विद्युत परियोजना नहीं थी। लेकिन इससे पिंडारी ग्लेशियर से कर्णप्रयाग तक कई हैक्टेयर कृषि भूमि जलमग्न हो गयी थी।

इस बाढ़ से सबसे अधिक नुकसान जलीय जीवों को हुआ था। बाढ़ के साथ गाद आने के चलते पिंडर नदी में रहने वाली महाशीर और ट्राउट मछलियों को भारी नुकसान हुआ था। थराली के 82 वर्षीय गौरी दत्त बताते हैं कि नदी किनारे रहने वाले कई लोग इस जल प्रलय में बह गये और सैकड़ों जानवर भी बाढ़ की भेंट चढ़ गये। जो लोग भागकर ऊपरी क्षेत्रों में चले गये उनकी जान बच गयी।

लोग इसे हिमालय में कोई पहाड़ टूटने की घटना मानते थे। जैसे ही कुछ समय बाद पानी का स्तर कम हुआ तो नदी के किनारे और खेतों के मलबे में चारों तरफ मृतक मछलियां नजर आईं। वही समय था जब हमने पिंडर में 40 से 50 किलो भारी वजनी मछली मरी हुई देखी। जिसको कि कुल्हाड़ी से काटा गया। उस जल प्रलय में इतनी मछलियां मरी कि लोगों को मरी मछलियों को पिंडर में ही बहाना पड़ा।

योजना में पारंपरिक ज्ञान और अनुभव की अनदेखी तबाही का सबब
उत्तराखंड में प्रारंभिक दौर में जब बसासत की शुरुआत हुई थी तभी नागरिकों ने प्रकृति के मिजाज को समझने और उसके अनुरूप जनजीवन चलाने को प्राथमिकता दी थी। यहां तक कि ब्रिटिश शासकों ने भी उन परंपराओं को महत्व दिया, जिससे यहां का पर्यावरण सैकड़ों वर्षों तक सुरक्षित रहा, लेकिन आधुनिकता की दौड़ में स्थापित परंपराओं की जो अनदेखी हुई उसने यहां तमाम आपदाओं को आमंत्रित किया है।

उत्तराखंड में बसासत की शुरुआत रिवर वैली सेटलमेंट के तहत नदियों के तटों पर हुई, लेकिन बागेश्वर, श्रीनगर जैसी तमाम जगहों पर गर्मियों में बहुत गर्मी पड़ने के कारण तत्कालीन समाज ने ठंडी जलवायु की तलाश में टीलों (रिज) का रुख किया। सुरक्षित समझे जाने वाले क्षेत्रों में वर्षों के अध्ययन के बाद पानी वाली जगहों में बसासत से पहले वहां भारी तादाद में उतीस और बांज के वृक्ष रोपित किए गए जो जल को रोकने में सक्षम थे।

इन लोगों के पास क्षेत्र की जैव विविधता और नदियों, झीलों, पर्वतों, ग्लेशियर और उनमें होने वाले सूक्ष्म परिवर्तनों आदि की महत्वपूर्ण जानकारी थी। ब्रिटिश शासकों ने जब यहां विकास कार्य किए तो इसके लिए ईआईए यानी एन्वायरनमेंटल इंपैक्ट असेसमेंट को आवश्यक रूप से लागू किया। इसके तहत सड़क, विद्युत परियोजना या अन्य निर्माण से पूर्व क्षेत्रीय बुद्धिजीवियों सहित बुजुर्गों और आमजनों के अनुभवों और सुझावों के बाद ही योजनाएं बनाईं गईं। यही कारण है कि ब्रिटिश काल के दौरान बनीं परियोजनाएं अपनी उम्र से से भी अधिक समय तक सुरक्षित रहीं।