गांव के मेले में खोया हुआ एक मूक-बधिर युवक (deaf youth) हाथ पर बने टैटू (tattoos) की बदौलत 26 साल बाद अपने परिवार से मिला. सोशल मीडिया के कारण जिलाजीत सिंह मौर्य (Jiljit Singh Maurya) के लिए सुखद अंत, या यूं कहें कि एक नई शुरुआत संभव हुई. एक रिपोर्ट के मुताबिक, आजमगढ़ (Azamgarh) के गोठान गांव के एक संपन्न किसान परिवार का सबसे छोटा बेटा जिलाजीत 1 जून 1996 को लापता हो गया था. जिलाजीत के भांजे चंद्रशेखर मौर्य (46) ने कहा, तब मामा 35 साल के थे. पिता सोहन मौर्य और 2 अन्य भाइयों ने जिलाजीत की तलाश शुरू की. 1991 में उनकी मां का देहांत हो गया था.
चंद्रशेखर ने कहा, ‘वह मानसिक रूप से दूसरों की तरह सतर्क भी नहीं थे. मेरे पिता और मामाओं ने आसपास के जिलों का दौरा किया, लेकिन उनका कोई पता नहीं चला. हमने तीर्थ स्थलों का दौरा किया, गरीबों को भिक्षा दी, अनुष्ठान किए, लेकिन सब व्यर्थ रहा.’ जिलाजीत के पिता की 2011 में मृत्यु हो गई. परिवार धीरे-धीरे इस दुख को भूल गया. यह मान लिया कि अब जिलाजीत वापस नहीं आएगा. चंद्रशेखर को अपने किसी सहयोगी से एक दिन जिलाजीत के टैटू वाले हाथ की फेसबुक फोटो मिली.
एक दिन फेसबुक पर पोस्ट की गई यह तस्वीर चंद्रशेखर के सहयोगी के ध्यान में आई. चंद्रशेखर ने कहा, ’13 दिसंबर को एक साथी शिक्षक ने मुझे अमेठी के शिवेंद्र सिंह द्वारा फेसबुक पर पोस्ट की गई एक बुजुर्ग व्यक्ति की तस्वीर भेजी, जिसके हाथ पर कुछ गुदा था और फीका पड़ गया था.’ चंद्रशेखर ने शिवेंद्र को एफबी मेसेंजर पर संदेश भेजा, जो ग्राम प्रधान दिलीप सिंह का पुत्र है. टीओआई ने शिवेंद्र के हवाले से लिखा, ‘मेरे पिता बुजुर्ग को घर ले आए, उन्हें खाना खिलाया और डॉक्टर को बुलाया. फिर, हमने उनके परिवार के सदस्यों की तलाश शुरू की.’
जिलाजीत के भाइयों द्वारा उसकी पहचान की पुष्टि करने के बाद, चंद्रशेखर और उसका छोटा भाई मंगलवार को रायबरेली के हटवा ग्राम प्रधान दिलीप सिंह के घर पहुंचे और अपने मामा को वापस ले आए. जिलाजीत की वापसी परिवार के लिए किसी त्योहार से कम नहीं थी. उसके दोनों भाई खुशी से नाचने लगे और ग्रामीणों में खीर बांटी. शायद कोई भी उस दर्द और परेशानी को नहीं समझ पाएगा, जिससे जिलाजीत करीब ढाई दशक तक गुजरे. वह संवाद नहीं कर सकते थे. न ही सुन सकते थे.