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रोचक है गंगोत्री सीट का इतिहास, अब तक जो पार्टी यहां से जीती उसी की बनी सरकार

गंगा उद्गम स्थल गंगोत्री धार्मिक लिहाज से पूरे देश दुनिया में अपना विशिष्ठ महत्व रखता है, लेकिन प्रदेश की सत्ता से भी एक मिथक गंगोत्री से जुड़ा हुआ है। यह मिथक अभिविभाजित उत्तर प्रदेश के समय से चला आ रहा है, जो इसे विशिष्ट बना देता है। चुपके-चुपके ही सही उत्तराखंड में राजनीतिक दल भी इस मिथक को अब नजरअंदाज नहीं कर पाते।

दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने बुधवार को उत्तरकाशी में आयोजित प्रेसवार्ता के दौरान कर्नल कोठियाल को गंगोत्री विधानसभा से 2022 के लिए प्रत्याशी घोषित करते हुए इस मिथक का जिक्र किया और गंगोत्री विधानसभा को सबसे विशिष्ट बताया। आजादी के बाद सबसे पहले आम चुनाव हुए 1952 में हुआ। 1952 में उत्तरकाशी सीट से जयेंद्र सिंह बिष्ट निर्दलीय चुनाव जीते और फिर कांग्रेस में शामिल हो गए। उस समय उत्तर प्रदेश में गोविंद बल्लभ पंत के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी।

दोबारा 1957 में विधानसभा चुनाव हुए और कांग्रेस के जयेंद्र सिह बिष्ट निर्वरोध निर्वाचित हुए। लखनऊ में कांग्रेस की सरकार बनी। 1958 में विधायक जयेंद्र सिंह बिष्ट की मृत्यु के बाद कांग्रेस के ही रामचंद्र उनियाल विधायक बने। इस बीच टिहरी रियासत का हिस्सा रहा उत्तरकाशी वर्ष 1960 में अलग जनपद के रूप में अस्तित्व में आ गया, लेकिन मिथक बरकरार रहा। वर्ष 1977 में जनता पार्टी से बरफियालाल जुवांठा ने चुनाव लड़ा तो प्रदेश में जनता पार्टी की सरकार बनी।

1991 में भाजपा के ज्ञानचंद जीते और राज्य में भाजपा की ही सरकार बनी। उत्तराखंड राज्य बनने के अब तक भी यानि 2017 तक के विधानसभा चुनावों में जिस भी पार्टी का प्रत्याशी गंगोत्री-उत्तरकाशी सीट से चुनाव जीता। राज्य में उसी पार्टी की सरकार बनी। ये अलग बात है कि राज्य बनने के बाद इस सीट का नाम उत्तरकाशी से बदलकर गंगोत्री कर दिया गया। साढ़े पांच दशक से यह मिथक अपना वजूद बनाए हुए है।

राज्य में एक बार फिर चुनाव की दहलीज पर है। समय के साथ भले ही चुनाव के तौर-तरीके सिरे से बदल गए हों। राजनीतिक पार्टियां इनफारमेशन टेक्नालॉजी से लेकर धनबल से लैस हो गई हों। बावजूद इसके मिथक को नजरंदाज करने का जोखिम कोई लेना चाहता। लिहाजा गंगोत्री की यह सीट सीमांत होते हुए भी सरकार बनने तक चर्चाओं का केंद्र बनी रहती है।