कांग्रेस (Congress), कर्नाटक विधानसभा चुनाव (Karnataka Assembly Elections) में ओबीसी वोटरों (OBC voters) को साध रही है। इसके जरिए पार्टी अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव (Lok Sabha Elections) पर भी नजर रख रही है। दरअसल, वर्ष 2019 में कर्नाटक के कोलार में राहुल गांधी ने मोदी (ओबीसी जाति) पर टिप्पणी की। इस वजह से उनको लोकसभा की सदस्यता गंवानी पड़ी। ठीक चार साल बाद इसी कोलार में विधानसभा चुनाव प्रचार में जातीय जनगणना की मांग कर राहुल गांधी ने कांग्रेस की राजनीति में महत्वपूर्ण बदलाव के संकेत दे दिए।
अमूमन अगड़ी जातियों, दलितों और अल्पसंख्यकों पर भरोसा कर राजनीति करने वाली कांग्रेस की रणनीति में यह बड़ा बदलाव था। इस घोषणा ने भाजपा को ओबीसी के अपमान के लिए राहुल से माफी मांगने की मांग से भी पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया। वहीं, पार्टी ने पूरे देश में जितनी आबादी, उतना हक मुहिम शुरू कर दी। यह सही है कि फरवरी में हुए 85वें महाधिवेशन में पार्टी ने भविष्य की राजनीति के संकेत दे दिए थे। पार्टी ने सामाजिक न्याय के एजेंडे पर बढ़ते हुए ओबीसी वर्ग के लिए घोषणाएं की थी। इनमें ओबीसी के लिए अलग मंत्रालय और उच्च न्यायपालिका में ओबीसी आरक्षण और कई घोषणा शामिल थी। ऐसा नहीं है कि कांग्रेस ने ओबीसी का भरोसा जीतने के लिए इससे पहले कोई कोशिश नहीं की थी, पर इन जातियों को साथ लेने में बहुत सफल नहीं हुई। पर इस बार स्थितियां कुछ अलग है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, तेजस्वी यादव और शरद पवार से मिलने के बाद कांग्रेस इस मुद्दे पर मुखर हुई है। ऐसे में पार्टी को क्षेत्रीय दलों के साथ ओबीसी वोट की उम्मीद है।
कर्नाटक
कांग्रेस ने तय रणनीति के तहत कर्नाटक चुनाव में ओबीसी का मुद्दा उठाया है। कर्नाटक में करीब 22 फीसदी ओबीसी हैं और करीब 30 सीट पर असर डालते हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा को ओबीसी को 50 फीसदी से ज्यादा वोट मिला था। इस बार कांग्रेस ने 52 ओबीसी उम्मीदवारों को टिकट दिया है। ताकि, इस वोट में सेंध लगाई जा सके।
राजस्थान
राजस्थान की राजनीति में ओबीसी वोट बैंक बड़ा मुद्दा है। प्रदेश में करीब 55 फीसदी ओबीसी मतदाता हैं और लगभग सभी सीट पर असरदार हैं। विधानसभा में 60 ओबीसी विधायक हैं। इतना ही प्रदेश के 25 में से 11 लोकसभा सांसद भी ओबीसी से हैं। प्रदेश में सरकारी नौकरियों में ओबीसी आरक्षण 21 प्रतिशत से बढ़कर 27 फीसदी करने की मांग चल रही है।
मध्य प्रदेश
मप्र में कुछ माह बाद चुनाव हैं। प्रदेश में करीब 48 फीसदी ओबीसी मतदाता हैं। प्रदेश में साठ विधायक ओबीसी वर्ग से आते हैं। कमलनाथ सरकार ने ओबीसी को प्राप्त आरक्षण को 14 से बढाकर 27 प्रतिशत कर दिया था। पर बाद में मामला अदालत में गया और अदालत ने अंतरिम आदेश जारी कर 27 फीसदी ओबीसी आरक्षण पर रोक लगा दी।
छत्तीसगढ़
छत्तीसगढ में 47 फीसदी आबादी ओबीसी हैं। इस वर्ग में 95 से ज्यादा जातिया हैं। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल भी ओबीसी वर्ग से आते हैं। शुरुआत में ओबीसी ने भाजपा पर भरोसा जताया, पर वर्ष 2018 के चुनाव में ओबीसी कांग्रेस की तरफ शिफ्ट हो गया। प्रदेश में जल्द विधानसभा चुनाव हैं, ऐसे में पार्टी इस वोट को अपने साथ बरकरार रखना चाहती है।
ओबीसी का लाभ नहीं ले पाई कांग्रेस
वर्ष 2011 में तत्कालीन यूपीए सरकार ने जातीय जनगणना कराने का फैसला किया था। कांग्रेस ने इस मुद्दे को खूब भुनाने की भी कोशिश की थी। पर पार्टी को इसका फायदा नहीं मिला। इस आदेश के बाद यूपी, पंजाब, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में पार्टी जीत दर्ज करने में विफल रही। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में भी कोई फायदा नहीं मिला। इससे पहले वर्ष 2006 में यूपीए एक सरकार ने केंद्रीय शिक्षण संस्थानों में ओबीसी के लिए 27 फीसदी आरक्षण का प्रस्ताव रखा था। ओबीसी के पक्ष में यह सरकार का बड़ा फैसला था। इसे कांग्रेस की ओबीसी राजनीति में बदलाव का संकेत माना गया। पार्टी के पक्ष में 2009 में दो फीसदी ओबीसी वोट की वृद्धि हुई, पर पार्टी इसे बरकरार रखने में विफल रही।
उत्तर प्रदेश-बिहार अहम
राष्ट्रीय स्तर पर ओबीसी मतदाता लगभग हर प्रदेश में असरदार हैं। पर उत्तर प्रदेश और बिहार अहम हैं। दोनों प्रदेशों में लोकसभा की 120 सीट हैं। मंडल आंदोलन के बाद लालू प्रसाद यादव बिहार और मुलायम सिंह यादव यूपी में बड़े ओबीसी नेता के तौर पर उभरे। आंदोलन के बाद लालू व मुलायम सिंह यादव सहित दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों ने यह सीट कांग्रेस से छीन ली। वर्ष 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद ओबीसी राजनीति में बड़ा बदलाव हुआ। भाजपा इन दोनों प्रदेशों सहित पूरे देश में ओबीसी समुदाय का भरोसा जीतने में सफल रही। अब कांग्रेस उसी सधी हुई रणनीति के तहत उननें से कुछ सीटों पर वापसी करना चाहती है। क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर कांग्रेस अपनी रणनीति में सफल रहती है, तो इसका नुकसान भाजपा को होगा।