पुराणों में कई ऐसी कथाएं मौजूद हैं जो व्यक्ति को भाग्य और कर्मों को अच्छे से समझने में मदद कर सकती हैं। इसी पर आधारित हम आपके लिए आज के लिए पौराणिक कथा लाए हैं। इस कथा के अनुसार, अगर व्यक्ति अपने भाग्य के भरोसे बैठा रहे तो वो कुछ भी हासिल नहीं कर सकता है। तो आइए पढ़ते हैं यह पौराणिक कथा। कथा के अनुसार, एक बार देवर्षि नारद बैकुंठ धाम गए। वहां पहुंचकर उन्होंने श्रीहरि से कहा कि प्रभु! पृथ्वी पर आपका प्रभाव कम हो रहा है। जो धर्म के रास्त पर चल रहे हैं उनका भला नहीं हो रहा है और जो पाप कर रहे हैं उनका खूब भला हो रहा है। यह सुन श्री विष्णु ने कहा, ”ऐसा नहीं है देवर्षि। नियति के अनुसार ही सब हो रहा है और वही उचित है।” तब नारद जी ने कहा, ”मैंने स्वयं अपनी आंखो से देखा है प्रभु। पापियों को अच्छा फल प्राप्त हो रहा है। जो लोग धर्म के रास्ते पर अग्रसर हैं उनके साथ बुरा हो रहा है।” तब विष्णु जी ने कहा कि इस तरह की किसी एक घटना के बारे में बताओ।
तब नारद ने एक घटना का उल्लेख किया कि जब वो जंगल से आ रहे थए तब एक गाय दलदल में फंसी हुई थी। लेकिन कोई भी उसे बचाने के लिए नहीं आ रहा था। इसी दौरान एक चोर आया और उसने देखा कि गाय दलदल में फंसी हुई है। लेकिन उसने गाय को बचाया नहीं। वह चोर उस पर पैर रखकर दलदल लांघकर निकल गया। आगे चलकर उसे सोने की मोहरों से भरी एक थैली मिली। फिर वहां से एक बूढ़ा साधु गुजरा। उसने गाय को बचाने की पूरी कोशिश की और बचाने में कामयाब भी हो गया। लेकिन जब गाय को बचाकर वो साधु आगे गया तो वो एक गड्ढे में गिर गया। तो बताइए यह कौन-सा न्याय है।
नारद जी की बात सुनकर प्रभु ने कहा कि जो चोर गाय पर पैर रखकर भाग गया था उसकी किस्मत में तो खजाना था। लेकिन उसके पाप के चलते उसे कुछ ही सोने की मोहरें मिलीं। वहीं, उस साधु के भाग्य में मृत्यु लिखी थी। लेकिन उसने गाय की जान बताई। उसके इस पुण्य के चलते उसकी मृत्यु टल गई और एक छोटी-सी चोट में बदल गई। यही कारण था कि वो गड्ढे में जा गिरा।ऐसे में इंसान का भाग्य उसके कर्म पर ही निर्धारित होते हैं। सत्कर्मों का प्रभाव ऐसा होता है कि दुखों और संकटों से मनुष्य का उद्धा हो जाता है।