शारदीय नवरात्रि का त्योहार शनिवार 17 अक्टूबर से शुरू होगा और 25 अक्टूबर तक चलेगा। नौ दिनों तक चलने वाला यह त्योहार हर साल पूरी धूमधाम के साथ मनाया जाता है। इस साल कोरोना वायरस महामारी की वजह से हमेशा की तरह चहल-पहल नहीं रहेगी, लेकिन भक्तों के उत्साह में कोई कमी नहीं होगी।
नवरात्रि का पहला दिन
शैलपुत्री देवीदुर्गाके नौ रूप में पहले स्वरूप में जानी जाती हैं. ये ही नवदुर्गाओं में प्रथम दुर्गा हैं. पर्वतराज हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न होने के कारण इनका नाम ‘शैलपुत्री’ पड़ा. नवरात्र-पूजन में प्रथम दिवस इन्हीं की पूजा और उपासना की जाती है. मां शैलपुत्री के दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएँ हाथ में कमल-पुष्प सुशोभित है. अपने पूर्व जन्म में ये प्रजापति दक्ष की कन्या के रूप में उत्पन्न हुई थीं, तब इनका नाम ‘सती’ था. इनका विवाह भगवान शंकरजी से हुआ था.
पूजा विधि
सुबह ब्रहम मुहूर्त में उठकर स्नान करें।
घर के किसी पवित्र स्थान पर स्वच्छ मिटटी से वेदी बनाएं।
वेदी में जौ और गेहूं दोनों को मिलाकर बोएं।
वेदी के पास धरती मां का पूजन कर वहां कलश स्थापित करें।
इसके बाद सबसे पहले प्रथमपूज्य श्रीगणेश की पूजा करें।
वैदिक मंत्रोच्चार के बीच लाल आसन पर देवी मां की प्रतिमा स्थापित करें।
माता को कुंकुम, चावल, पुष्प, इत्र इत्यादि से विधिपूर्वक पूजा करें।
माता शैलपुत्री के मंत्र
1. शिवरूपा वृष वहिनी हिमकन्या शुभंगिनी.
पद्म त्रिशूल हस्त धारिणी
रत्नयुक्त कल्याण कारीनी..
2. ॐ ऐं ह्रीं क्लीं शैलपुत्र्यै नम:
बीज मंत्र— ह्रीं शिवायै नम:.
3. वन्दे वांच्छित लाभाय चंद्रार्धकृतशेखराम् .
वृषारूढ़ां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम् ॥
4. प्रथम दुर्गा त्वंहि भवसागर: तारणीम्.
धन ऐश्वर्य दायिनी शैलपुत्री प्रणमाभ्यम्॥
त्रिलोजननी त्वंहि परमानंद प्रदीयमान्.
सौभाग्यरोग्य दायनी शैलपुत्री प्रणमाभ्यहम्॥
चराचरेश्वरी त्वंहि महामोह: विनाशिन.
मुक्ति भुक्ति दायनीं शैलपुत्री प्रणमाम्यहम्॥
मां शैलपुत्री के जन्म की कहानी
एक बार प्रजापति दक्ष ने एक बहुत बड़ा यज्ञ किया. इसमें उन्होंने सारे देवताओं को अपना-अपना यज्ञ-भाग प्राप्त करने के लिए निमंत्रित किया, किन्तु शंकरजी को उन्होंने इस यज्ञ में निमंत्रित नहीं किया. सती ने जब सुना कि उनके पिता एक अत्यंत विशाल यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे हैं, तब वहाँ जाने के लिए उनका मन विकल हो उठा. अपनी यह इच्छा उन्होंने शंकरजी को बताई. सारी बातों पर विचार करने के बाद उन्होंने कहा- प्रजापति दक्ष किसी कारणवश हमसे रुष्ट हैं. अपने यज्ञ में उन्होंने सारे देवताओं को निमंत्रित किया है. उनके यज्ञ-भाग भी उन्हें समर्पित किए हैं, किन्तु हमें जान-बूझकर नहीं बुलाया है. कोई सूचना तक नहीं भेजी है. ऐसी स्थिति में तुम्हारा वहाँ जाना किसी प्रकार भी श्रेयस्कर नहीं होगा.’
शंकरजी के इस उपदेश से सती का प्रबोध नहीं हुआ. पिता का यज्ञ देखने, वहाँ जाकर माता और बहनों से मिलने की उनकी व्यग्रता किसी प्रकार भी कम न हो सकी. उनका प्रबल आग्रह देखकर भगवान शंकरजी ने उन्हें वहाँ जाने की अनुमति दे दी. सती ने पिता के घर पहुँचकर देखा कि कोई भी उनसे आदर और प्रेम के साथ बातचीत नहीं कर रहा है. सारे लोग मुँह फेरे हुए हैं. केवल उनकी माता ने स्नेह से उन्हें गले लगाया. बहनों की बातों में व्यंग्य और उपहास के भाव भरे हुए थे. परिजनों के इस व्यवहार से उनके मन को बहुत क्लेश पहुँचा. उन्होंने यह भी देखा कि वहाँ चतुर्दिक भगवान शंकरजी के प्रति तिरस्कार का भाव भरा हुआ है. दक्ष ने उनके प्रति कुछ अपमानजनक वचन भी कहे. यह सब देखकर सती का हृदय क्षोभ, ग्लानि और क्रोध से संतप्त हो उठा. उन्होंने सोचा भगवान शंकरजी की बात न मान, यहाँ आकर मैंने बहुत बड़ी गलती की है.
वे अपने पति भगवान शंकर के इस अपमान को सह न सकीं. उन्होंने अपने उस रूप को तत्क्षण वहीं योगाग्नि द्वारा जलाकर भस्म कर दिया. वज्रपात के समान इस दारुण-दुःखद घटना को सुनकर शंकरजी ने क्रुद्ध होअपने गणों को भेजकर दक्ष के उस यज्ञ का पूर्णतः विध्वंस करा दिया. सती ने योगाग्नि द्वारा अपने शरीर को भस्म कर अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया. इस बार वे ‘शैलपुत्री’ नाम से विख्यात हुर्ईं. पार्वती, हैमवती भी उन्हीं के नाम हैं. उपनिषद् की एक कथा के अनुसार इन्हीं ने हैमवती स्वरूप से देवताओं का गर्व-भंजन किया था.