यूं तो इसकी खेती भी होती है, पर चंबल के बीहड़ की रेतीली मिट्टी में यह अपने आप और प्रचुरता में पैदा होता है। अनेक औषधीय गुणों से युक्त ककोड़ा का फल चंबल के ग्रामीण परिवारों को रोजी उपलब्ध कराता है, किंतु कोरोनाकाल में तो मानो यह उनके लिए वरदान बन गया है। चंबल किनारे के दो दर्जन गांवों को इससे बेरोजगारी के इन बुरे दिनों में आसान रोजगार मिल गया है।
आगरा में पिनाहट से बाह तक करीब 50 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में बीहड़ है। बरसात में यहां एक बेल उगती है। यह करील की झाड़ियों, छोटे पेड़ सहित बीहड़ के बड़े हिस्से में फैल जाती है। इस बेल में लगने वाला फल है ककोड़ा। इसकी उपज बरसात के दिनों में होती है। इन दिनों यह बीहड़ के लोगों के लिए कमाई का आसान साधन बन गया है। उन्हें केवल बीहड़ से इसे तोड़कर लाना होता है और हाथोंहाथ बिक जाता है। 100 रुपये किलो तक बिक रहा है।
इसे ककोरा, किंकोड़ा और खेख्सा भी कहा जाता है। चंबल में ककोड़ा ही कहते हैं। वैज्ञानिक नाम मोमोर्डिका डायोइका है। हरे रंग के छोटे फल के ऊपर छोटेछोटे कांटेदार रेशे होते है। एंटीआक्सीडेंट, आयरन और फाइबरयुक्त इस फल की सब्जी बनाई जाती है। स्थानीय आयुर्वेद विशेषज्ञ डॉ. अशोक जैन के मुताबिक यह करेला की श्रेणी में आता है। इसमें एस्र्काबिक एसिड, कैरेटीन, थियामिन राइबोफ्लेविन, नियासिन जैसे विटामिन के अलावा कार्बोहाइड्रेट, फाइबर और अन्य पोषक खनिज पाए जाते हैं। यह गर्म और नम जलवायु की फसल है। ककोड़ा की खेती विभिन्न प्रकार की मिट्टी में की जा सकती है। किंतु रेतीली भूमि, जिसमें पर्याप्त मात्रा में जैविक पदार्थ हों और जल निकास की उचित व्यवस्था हो, वहां यह सबसे बेहतर होता है।
यही कारण है कि यह चंबल के बीहड़ की रेतीली मिट्टी में स्वत: उपजता है और गुणवत्ता से परिपूर्ण भी होता है। यहां के ककोड़ा की डिमांड दिल्ली, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान तक है। थोक व्यापारी खरीद ले जाते हैं। बगैर लागत पैदा होने के बावजूद अच्छे दाम मिल जाने से क्षेत्र के वंचित ग्रामीण परिवारों को इन दिनों इससे बड़ी राहत मिली है।
इन रोगों में है लाभकारी…
- रक्त का प्रवाह बढ़ाता है
- डायबिटीज को नियंत्रित करता है
- वात, पित्त को नियंत्रित करता है
- पथरी, दिल के रोगों में फायदेमंद
- जोड़ों के दर्द, सर्दी-खांसी-बुखार की अचूक दवा
- विटामिन ए युक्त होने से आंखें स्वस्थ रहती हैं
ऐसे बना सहारा… खोहरी निवासी छोटेलाल ने बताया, कोरोना काल में काम नहीं मिल रहा है। ककोड़ा तोड़कर ही खर्च चला रहे हैं। सुबह सात बजे बीहड़ में चले जाते हैं। दोपहर तक छह-सात किलो ककोड़ा तोड़ लेते हैं। व्यापारी 50 रुपये किलो के हिसाब से खरीद लेता है। शहर में जाकर खुद बेचने पर 80 से 100 रुपये
किलो तक बिक जाता है। वहीं, एक अन्य ग्रामीण भरत सिंह ने बताया, बरसात के महीनों में बीहड़ के करीब दो दर्जन गांवों के लिए ककोड़ा कमाई का साधन बना
है। वह भी बिना किसी लागत के। बस मेहनत के दम पर शाम तक 300 से 400 रुपये तक की आमदनी हो जाती है। ऐसे कठिन समय में इससे बड़ी राहत और क्या हो सकती है।