बिना सहमति के जबरदस्ती बनाए गए समलैंगिक संबंध और अप्राकृतिक यौनाचार को अपराध मानने वाले आइपीसी की धारा-377 के प्रविधान नए अपराधिक कानून भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) में नहीं शामिल किए जाने को चुनौती देने वाली याचिका सोमवार को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दी।
शीर्ष अदालत ने कहा कि यह मामला संसद के क्षेत्राधिकार में आता है। यह अदालत संसद को कानून बनाने या संविधान के अनुच्छेद-142 में मिली शक्तियों का इस्तेमाल करके किसी चीज को अपराध घोषित करने का आदेश नहीं दे सकती। याचिकाकर्ता इस संबंध में सरकार को ज्ञापन दे सकता है।
नए कानून की खमी को याचिका में किया उजागर
ये आदेश प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़,जस्टिस जेबी पार्डीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की तीन सदस्यीय पीठ ने आइपीसी की धारा-377 के प्रविधान बीएनएस में शामिल करने की मांग वाली पूजा शर्मा की याचिका खारिज करते हुए दिए। याचिका में नए कानून की खामी को उठाया गया था।
आईपीसी की धारा-377 में समलैंगिक संबंध बनाना और अप्राकृतिक यौनाचार दंडनीय अपराध था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने नवतेज ¨सह जौहर मामले में दिए फैसले में कहा था कि दो वयस्कों द्वारा सहमति से एकांत में बनाए गए समलैंगिक संबंध अपराध नहीं माने जाएंगे यानी उतने अंश को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था। लेकिन बिना सहमति के जबरदस्ती और नाबालिग के साथ समलैंगिक संबंध बनाना अपराध था। इसके अलावा जानवरों आदि से संबंध बनाना भी अपराध था।
‘अदालत संसद को प्रावधानों में शामिल करने का नहीं देगी निर्देश’
याचिका में कहा गया था कि बीएनएस में आइपीसी की धारा-377 के प्रविधान नहीं शामिल करने से पुरुषों, ट्रांस व्यक्तियों और जानवरों के विरुद्ध यौन अपराध को अपराध घोषित करने वाला कोई प्रविधान नहीं रह गया है। सुनवाई के दौरान प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि अदालत संसद को इन प्रविधानों को शामिल करने का निर्देश नहीं दे सकती।
उल्लेखनीय है कि अगस्त, 2024 में, दिल्ली हाई कोर्ट ने केंद्र सरकार से कहा था कि वह आइपीसी की जगह हाल में लाई गई भारतीय न्याय संहिता से अप्राकृतिक यौन संबंध के अपराधों के लिए दंडात्मक प्रविधानों को बाहर करने पर अपना रुख स्पष्ट करे। साथ ही कहा था कि विधायिका को बिना सहमति के अप्राकृतिक यौन संबंध के मुद्दे पर ध्यान देने की जरूरत है।