मुलायम सिंह यादव सैफई में 22 नवंबर 1939 में पैदा हुए थे. परिवार साधारण था. लेकिन गांव में खेती किसानी के साथ जो चीज सबसे लोगों को जोड़ती थी वो थी पहलवानी. सुबह शाम गांव के अखाड़े में किशोरों और युवकों का मजमा जमता और सब अपनी पहलवानी के दांव आजमाते. इन्हीं में एक थे मुलायम सिंह यादव. छोटे कद लेकिन मजबूत काठी वाले मुलायम. पढ़ने के बाद उनकी दिलचस्पी कुश्ती में थी.
एक से एक दांव आजमाने में माहिर और अपने से तगड़े पहलवानों को पटखनी देने में माहिर. वह जब शिकोहाबाद से टीचर बनने के लिए बीए के बाद बीटी करने गए तो वहां एक मेले में दंगल में कूदने से खुद को नहीं रोक पाए. और यही दंगल उन्हें सियासत के उस मैदान तक ले गया, जो असल में उनकी नियति थी, जिसे उन्हें अगले दशकों में जीना था.
दंगल में मुख्य अतिथि थे उस इलाके के खांटी समाजवादी नेता नत्थु सिंह. वह कुश्ती के भी शौकीन थे. उन्होंने जब मुलायम को कुश्ती लड़ते और जीतते देखा तो उनसे प्रभावित हुए. उनका परिचय लिया. जीतने पर बधाई दी और मिलने की आमंत्रण देकर चले गए.
कुश्ती ने नेता का करीबी बनाया
मुलायम उनसे मिले. मुलाकात के दौरान मुलायम को उनका शिष्य बनते देर नहीं लगी. उनके विचार बातों से वह प्रभावित हुए. इसके बाद जब वह टीचर बन गए तो पूरी तरह से नत्थु सिंह के शागिर्द बन गए. उनके लिए चुनाव प्रचार का जमकर काम किया. जब जहां जरूरत होती तब वहां वह हाजिर रहते. संगठन और नेतृत्व के उनके गुण दिखने लगे थे.
आंदोलन में उनका नेतृत्व उन्हें खास बनाता था
इसी दौरान जब नत्थु सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया तो मुलायम ने तमाम और कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर बड़ा आंदोलन इलाके में खड़ा किया. नत्थु रिहा हुए और मुलायम की पीठ थपथपाई. इसके बाद भी मुलायम तमाम आंदोलनों में ना केवल बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते बल्कि कदम कदम पर जाहिर करते कि उनमें कुछ खास बात तो है.
लोहिया से मिलवाया गया
नत्थु सिंह तब प्रजा सोशिलस्ट पार्टी में थे लेकिन जब 1964 में जब ये पार्टी टूटकर संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी बनी तो नत्थु इस पार्टी को खड़ा करने वाले राम मनोहर लोहिया के साथ चले गए. वह लोहिया के करीबी लोगों में थे. लोहिया इस बीच जब वहां आए तो मुलायम को उनसे मिलवाया ही नहीं गया बल्कि भविष्य की राजनीति के लिए जोशीले युवा के तौर पर परिचय कराया गया.
जसवंतनगर से टिकट मिला
1967 में यूपी में चौथे विधानसभा चुनाव हो रहे थे. यूं तो इटावा में कई दिग्गज नेता थे लेकिन नत्थु चाहते थे कि जसवंतनगर सीट से संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का टिकट मुलायम को मिले. उन्होंने लोहिया से लेकर दूसरे पार्टी नेताओं से मुलायम की पैरवी की. हालांकि जिले के कई नेताओं को इस युवा को टिकट मिलना जरा भी रास नहीं आया.
एक ओर दिग्गज तो दूसरी ओर नौसिखिया मुलायम
अब चुनाव का मैदान सज गया था. मुलायम को आमतौर पर नौसिखिया समझा जा रहा था लेकिन लोग भूल रहे थे कि इस नौजवान ने कई स्थानीय आंदोलन और गतिविधियों में खुद साबित किया है. उनके मुकाबल जो दिग्गज चुनाव मैदान में थे. वह थे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से कांग्रेस में आए एडवोकेट लाखन सिंह. जिनका नाम उन दिनों सूबे ही नहीं राष्ट्रीय स्तर पर जाना जाता था. वह अपनी मेहनत और ईमानदार के लिए भी विख्यात थे.
फिकरे कसे जाते थे
खैर मुलायम इस बात के बाद भी कमर कस ली कि वह लाखन के सामने सियासत में उनके आगे कुछ नहीं लगते. लोग भी फिकरे कसते कि ये मुकाबला तो हाथी और चूहे के बीच है. कहां एक दिग्गज और कहां एक नौसिखिया. मुलायम चुपचाप लगे रहे. जनसंपर्क करते रहे. जीतोड़ मेहनत की. हालांकि चाय की दुकानों पर तब विश्लेषण होता था कि मुलायम नहीं जीतने वाले. लाखन के आगे वो कैसे ठहर पाएंगे.
सबसे कम उम्र के विधायक बने
जब चुनाव परिणाम सामने आया तो पता लगा कि 28 साल का ये नौजवान जीत गया है. तब वह यूपी विधानसभा में सबसे कम उम्र में विधायक बनने वाले शख्स थे. उनकी जीत की खबर राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुई. इसके बाद तो मुलायम की सियासत जो शुरू हुई वो आगे ही आगे बढ़ती रही.