‘अभी नहीं तो कभी नहीं’. और विपक्ष यह जानता है. लोकसभा चुनाव 2024 (lok sabha elections 2024) में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Prime Minister Narendra Modi) के खिलाफ एक साझा उम्मीदवार का विचार बिखरे विपक्ष में अपनी जगह तेजी से बना रहा है. इसके कारण क्षेत्रीय दल इस बात पर तेजी से एकजुट हो रहे हैं कि कांग्रेस को उनकी सीटों पर अपने उम्मीदवारों को उतारने से परहेज करना चाहिए. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) से लेकर उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) तक, सभी क्षेत्रीय नेताओं को लगता है कि कांग्रेस को उन सीटों पर ही टिके रहना चाहिए जो वह निश्चित रूप से जीत सकती है.
इन दलों का मानना है कि कांग्रेस को सभी सीटों पर उम्मीदवार खड़ा करके माहौल को खराब नहीं करना चाहिए. बहरहाल जहां इस तरह का तर्क कांग्रेस आलाकमान को समझ में आ सकता है, मगर इसे राज्य की इकाइयों को समझाने और यहां तक कि इसके लिए राजी करने के लिए फुसलाने की भी जरूरत पड़ सकती है. 2024 के आम चुनावों में एक साझा विपक्षी उम्मीदवार का प्रस्ताव पटना में 12 जून को विपक्ष की बैठक से पहले बिहार के मुख्यमंत्री और जद (यू) नेता नीतीश कुमार ने रखा है. 22 मई को कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे (Mallikarjun Kharge) और राहुल गांधी (Rahul Gandhi) से मुलाकात में कुमार ने विपक्ष का एक उम्मीदवार उतारने की रणनीति पर जोर दिया.
सीटों का बंटवारा होगी बड़ी चुनौती
विपक्ष के साझा उम्मीदवार के विचार को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी समर्थन दिया और कांग्रेस को कर्नाटक चुनाव में जीत पर बधाई दी. तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ने कहा कि ‘संयुक्त विपक्ष के उम्मीदवार का समय आ गया है.’ बहरहाल 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले इसी तरह के प्रस्ताव का कोई नतीजा नहीं निकला था. लेकिन इस बार इसके बारे में उन अधिकांश दलों के बीच सैद्धांतिक सहमति है, जो बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में बड़ा आधार रखते हैं. ये राज्य लोकसभा में बड़े पैमाने पर सांसद भेजते हैं. मगर सबसे बड़ी चुनौती सीटों के बंटवारे की उस योजना की होगी, जो सभी को मंजूर हो.
कई राज्यों में कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों में सीधा टकराव
पश्चिम बंगाल में टीएमसी नहीं चाहेगी कि कांग्रेस उन सीटों पर उम्मीदवारों को खड़ा करे, जिन्हें वह जीत सकती है. ममता के गढ़ मुर्शिदाबाद में अधीर रंजन चौधरी का मामला ऐसे ही पेचीदा मुद्दों में एक है. इसी तरह उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी को लगता है कि कांग्रेस बस वोट बर्बाद करेगी और यह सबसे अच्छा है कि वह ज्यादातर सीटों पर चुनाव नहीं लड़े. कांग्रेस के लिए इस विचार को मानने की सीमित संभावना है. सपा ने अमेठी और रायबरेली में वर्षों से यही प्रस्ताव सामने रखा है, जो इन लोकसभा सीटों पर कांग्रेस के जीत हासिल करने के कारणों में से एक है.
AAP को लेकर कांग्रेस में मतभेद
मुंबई में एक संवाददाता सम्मेलन में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी चिदंबरम ने कहा कि ‘हम कम से कम 450 सीटों पर एक विपक्षी उम्मीदवार के प्रस्ताव पर काम कर रहे हैं. यह कार्य प्रगति पर है.’ इसमें सबसे बड़ी बाधा कांग्रेस की अपनी राज्य इकाइयां होंगी. केंद्र सरकार के दिल्ली पर हाल के अध्यादेश का उदाहरण से इसे देखा जा सकता है. भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के खिलाफ आम आदमी पार्टी के पक्ष में कांग्रेस सहित विपक्ष की एकता का विचार पंजाब और दिल्ली इकाइयों के लिए बिल्कुल स्वीकार्य नहीं है. जिन्हें अरविंद केजरीवाल की 10 साल पुरानी पार्टी ने चुनावों में हरा दिया था.
इस मुद्दे पर AAP के समर्थन पर चर्चा के लिए पंजाब और दिल्ली कांग्रेस इकाइयों की बैठक के बाद आलाकमान को इसके बारे में बताया गया. दिल्ली कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अजय माकन ने हाल ही में News18 को बताया कि अध्यादेश का विरोध क्यों नहीं किया जाना चाहिए. उन्होंने कहा कि ‘इसके कारण मैंने पहले ही सार्वजनिक कर दिए हैं. हम आप को समर्थन देने के विचार के बिल्कुल खिलाफ हैं.’ अध्यादेश पर दिल्ली कांग्रेस के नेताओं की प्रतिक्रिया को देखते हुए यह अनुमान लगाने का कोई कारण नहीं है कि क्या कांग्रेस दिल्ली सात लोकसभा सीटों पर AAP के खिलाफ उम्मीदवार नहीं खड़ा करेगी. स्वार्थ ने हमेशा बड़े हित को पीछे कर दिया है, खासकर राजनीति में. क्या 2024 में भी ‘संयुक्त विपक्ष के उम्मीदवार’ का विचार एक बार फिर केवल विचार ही रहेगा या अमल में आएगा?