लोहड़ी का पर्व सूर्य के मकर राशि में प्रवेश करने से ठीक एक दिन पहले देश के कई हिस्सों में बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता। इस पर्व की धूम उत्तर भारत (North India) खासकर पंजाब, हरियाणा और दिल्ली (Delhi) में ज्यादा होती है। आमतौर पर मकर संक्रांति 14 जनवरी को मनाया जाती है, इसलिए लोहड़ी (Lohri ) का पर्व 13 जनवरी को मनाया जाता रहा है। इस बार यानि 2022 में भी लोहड़ी का पर्व 13 जनवरी, 2021 को मनाया जाएगा।
लोह़ड़ी पर्व आनंद और खुशियों का प्रतीक है। यह त्यौहार शरद ऋतु के अंत में मनाया जाता है। इसके बाद से ही दिन बड़े होने लगते हैं। मूलरूप से यह पह पर्व सिखों द्वारा पंजाब, हरियाणा (Haryana) में मनाया जाता है, परंतु लोकप्रियता के चलते यह भारत में नहीं बल्कि विश्वभर में मनाया जाने वाला उत्सव है। इस दिन लोग एक-दूसरे को बड़े हर्षोल्लास पर्व की बधाई देते हैं।
लोहड़ी पंजाब एवं हरियाणा राज्य का प्रसिद्ध त्यौहार है, लेकिन इसके बावजूद भी इस पर्व की लोक्रप्रियता का दायरा इतना बड़ा है कि अब इसे देशभर में बड़े ही हर्षोल्लास (gaiety) के साथ मनाया जाता है। किसान वर्ग इस मौक़े पर अपने ईश्वर का आभार प्रकट करते हैं, ताकि उनकी फसल का अधिक मात्रा में उत्पादन हो।
: उत्सव के दौरान बच्चे घर-घर जाकर लोक गीत गाते हैं और लोगों द्वारा उन्हें मिष्ठान और पैसे (कभी-कभार) भी दिए जाते हैं
: ऐसा माना जाता है कि बच्चों को खाली हाथ लौटाना सही नहीं माना जाता है, इसलिए उन्हें इस दिन चीनी, गजक, गुड़, मूँगफली एवं मक्का आदि भी दिया जाता है जिसे लोहड़ी भी कहा जाता है।
: फिर लोग आग जलाकर लोहड़ी को सभी में वितरित करते हैं और साथ में संगीत आदि के साथ त्यौहार का लुत्फ़ उठाते हैं।
: रात में सरसों का साग और मक्के की रोटी के साथ खीर जैसे सांस्कृतिक भोजन को खाकर लोहड़ी की रात का आनंद लिया जाता है।
: पंजाब के कुछ भाग में इस दिन पतंगें भी उड़ाने का प्रचलन है।
वहीं सिंधि समाज में भी मकर संक्रांति से एक दिन पूर्व ‘लाल लाही’ के रूप में इस पर्व को मनाया जाता है। ऋतु परिवर्तन से जुड़ा लोहड़ी का त्योहार शीत ऋतु के जाने और वसंत ऋतु के आगमन के तौर भी मनाया जाता है। कृषक समुदाय में लोहड़ी का पर्व उत्साह और उमंग का संचार करता है क्योंकि इस पर्व तक उनकी वह फसल पक कर तैयार हो चुकी होती है जिसको उन्होंने अथक मेहनत से बोया और सींचा था। पर्व के दिन रात को जब लोहड़ी जलाई जाती है तो उसकी पूजा गेहूं की नयी फसल की बालों से ही की जाती है।
लोहड़ी को पहले तिलोड़ी कहा जाता था। यह शब्द तिल और रोड़ी (गुड़ की रोड़ी) शब्दों से मिलकर बना है, जो समय के साथ बदल कर लोहड़ी के रूप में प्रसिद्ध हो गया। पंजाब के कई इलाकों मे इसे लोही या लोई भी कहा जाता है। लोहड़ी के साथ ही मकर संक्रांति के दिन भी तिल-गुड़ खाने और बांटने का महत्व है।ऐसे मनाई जाती है लोहड़ी
लोहड़ी के दिन शाम के वक्त लोग लकड़ियों व उपलों को इकट्ठा कर छोटा सा ढेर बनाकर जलाते हैं, वह इस आग के चारों ओर चक्कर काटते हुए नाचते-गाते हैं और जश्न मनाते हैं. लोग आग में रेवड़ी, गजक, मूंगफली, खील, मक्के के दानों की आहुति देते हैं। यह सब चीजें आपस में बांटी भी जाती हैं। कई लोग इन्हें घर-घर जाकर भी बांटते हैं। अग्नि की परिक्रमा करते हुए और आग के चारों ओर बैठकर लोग आग सेंकते हैं। इस दौरान वे लोग रेवड़ी, खील, गज्जक, मक्का खाने का आनंद भी लेते हैं।
लोहड़ी पर्व के विशेष पकवान
लोहड़ी के दिन विशेष पकवान बनते हैं जिसमें गजक, रेवड़ी, मुंगफली, तिल-गुड़ के लड्डू, मक्का की रोटी और सरसों का साग प्रमुख होते हैं।
धार्मिक महत्व (Lohri ka Mahtva)
माना जाता है इस दिन धरती सूर्य से अपने सुदूर बिन्दु से फिर दोबारा सूर्य की ओर मुख करना प्रारम्भ कर देती है। यह पर्व खुशहाली के आगमन का प्रतीक भी है। साल के पहले मास जनवरी में जब यह पर्व मनाया जाता है उस समय सर्दी का मौसम जाने को होता है। वैसाखी त्योहार की तरह लोहड़ी का सबंध भी पंजाब के गांव, फसल और मौसम से है।
इस दिन से मूली और गन्ने की फसल बोई जाती है। इससे पहले रबी की फसल काटकर घर में रख ली जाती है। खेतों में सरसों के फूल लहराते दिखाई देते हैं। लोहड़ी की अग्नि में रबी की फसलों (जौ, चना, मसूर, सरसों, गेहूं, मटर, मक्का) को अर्पित किया जाता है। देवताओं को नई फसल का भोग लगाकर पूरे साल के लिए भगवान से धन और संपन्नता की प्रार्थना की जाती है।
लोहड़ी के त्यौहार का उद्देश्य (Lohri Festival Objective)
सामान्तः त्यौहार प्रकृति में होने वाले परिवर्तन के साथ- साथ मनाये जाते हैं जैसे लोहड़ी में कहा जाता हैं कि इस दिन वर्ष की सबसे लम्बी अंतिम रात होती हैं इसके अगले दिन से धीरे-धीरे दिन बढ़ने लगता है। साथ ही इस समय किसानों के लिए भी उल्लास का समय माना जाता हैं। खेतों में अनाज लहलहाने लगते हैं और मौसम सुहाना सा लगता हैं, जिसे मिल जुलकर परिवार एवम दोस्तों के साथ मनाया जाता हैं। इस तरह आपसी एकता बढ़ाना भी इस त्यौहार का उद्देश्य हैं।
अकबर के जमाने में “दुल्ला भट्टी” नाम का एक डाकू हुआ करता था, जिसके नाम का आतंक ही लोगो को डराने के लिए काफ़ी था| दुल्ला भट्टी एक विद्रोही था और जिसकी वंशवली भट्टी राजपूत थे। उसके पूर्वज पिंडी भट्टियों के शासक थे जो की संदल बार में था अब संदल बार पकिस्तान में स्थित हैं। वह सभी पंजाबियों का नायक था, पर अकबर के शासन के दौरान ग़रीब और कमज़ोर लड़कियों को अमीर लोग गुलामी करने के लिए बलपूर्वक बेच देते थे।
यह सब संदलबार क्षेत्र और इसके आसपास के इलाकें में हो रहा था। उसी समय में सुंदरी एवं मुंदरी नाम की दो अनाथ लड़कियां थीं, जिनको उनका चाचा विधिवत शादी न करके एक राजा को भेंट कर देना चाहता था। उसी समय में दुल्ला भट्टी डाकू ने दोनों लड़कियों सुंदरी एवं मुंदरी को जालिमों से छुड़ाकर उन की शादियां कराई। इस मुसीबत की घड़ी में दुल्ला भट्टी ने लड़कियों की मदद करने के साथ लड़के वालों को राज़ी करके एक जंगल में आग जला कर सुंदरी और मुंदरी का विवाह करवाया। दुल्ले ने खुद ही उन दोनों का कन्यादान किया।
कहते हैं दुल्ले ने शगुन के रूप में उनको शक्कर दी थी। जल्दी-जल्दी में शादी की धूमधाम का इंतजाम भी न हो सका सो दुल्ले ने उन लड़कियों की झोली में एक सेर शक्कर डालकर ही उनको विदा कर दिया। भावार्थ यह है कि, डाकू होकर भी दुल्ला भट्टी ने निर्धन लड़कियों के लिए पिता की भूमिका निभाई और वह काम कर दिखाया जिसकी किसी को उम्मीद नही थी|