कोरोना की विभीषिका किसी के लिए आपदा तो किसी के लिए अवसर है तो किसी के लिए खतरा मोल लेकर दो पैसे कमाने की मजबूरी. ऐसी ही मजबूरी उन मजदूरों की है जिनके हाथों में दिनभर की कमाई का आने वाला चंद पैसा भी कोरोना ने छीन लिया. इसलिए मोक्ष नगरी काशी में यह मजदूर उन बेसहारा शवों का सहारा बन शवयात्रा में कंधा देकर कुछ पैसे भी कमा रहे हैं और मोक्ष के द्वार तक पहुंचा रहे हैं, जिनको संक्रमण के डर से अपने भी कंधा देने से गुरेज कर रहे हैं.
इस कोरोना काल ने इंसान को वे हर कुछ सिखा दिया, जिसके लिए ताउम्र भी कम पड़ जाती. कुछ बेसहारों का सहारा अनजान बन रहे हैं तो कइयों ने तो कोरोना के डर से अपनों का ही हाथ छोड़ दिया. मस्तमौला और मोक्षदायिनी काशी भी इससे अछूती नहीं है. मददगार काशी में बगैर मांगे ही लोग एक दूसरे की मदद कर दिया करते थे, लेकिन कोरोना ने इस मदद की भी कीमत तय कर दी. सुनने में भले ही अजीब लगे, लेकिन सच है. मोक्ष की कामना के लिए काशी में अंतिम संस्कार भी इतना आसान नहीं रह गया है. लोग किसी तरह अपनों को लेकर आ तो रहें हैं, लेकिन फिर कोरोना के भय से शव को कंधा देने में भी कतरा रहे हैं.
ऐसे ही एक डेडबॉडी कैरियर जो पहले मजदूरी किया करता था, राजेश ने बताया कि पहले वे मजदूरी का काम किया करते थे, लेकिन इस वक्त काम न मिल पाने के चलते लाश ढोते हैं क्योंकि खाना कहां से खाएंगे? उसने बताया कि वे मिर्जापुर जिले का रहने वाले हैं और सिर्फ शवों को कंधा देकर पैसे कमाने पिछले 8-10 दिनों से बनारस आते हैं. पूरे दिन भर में 1-2 शव मिल जाते हैं कंधा देने के लिए. एक शव को कंधा देने के के लिए 2 हजार से 22 सौ रुपये मिलते हैं, जो उनके पांच साथियों में बंट जाता है. जो शव लेकर आते हैं उनको कंधा देने में डर लगता है, लेकिन हम डरेंगे तो घर-परिवार कैसे चलाएंगे?
तो वहीं एक दूसरे युवा डेडबॉडी कैरियर मजदूर करण ने बताया कि काम नहीं मिल रहा है, इसलिए ऐसा काम करना पड़ रहा है. हरिश्चंद्र श्मशान पर भी डेडबॉडी को कंधा देते हैं. 500 रुपये प्रति लेबर को मिलता है. उसने बताया कि उन्हे शवों को कंधा देने से डर नहीं लगता, क्योंकि उनके मन में कोई खोट नहीं है. अब तक अनगिनत शवों को श्मशान पहुंचा चुके हैं. काशी के श्मशान हरिश्चंद्र घाट और महाश्मशान पर शवों के आने का सिलसिला थम ही नहीं रहा है. पेट की आग के आगे मजहब की दीवार भी बौनी हो जाती है. ऐसा नहीं है कि डेडबॉडी कैरियर्स में सिर्फ हिंदू ही हैं, बल्कि मुसलमान मजदूर भी लगे हुए हैं. बलिया के रहने वाले सलाउद्दीन अंसारी ने बताया कि लेबर का काम करते हैं और शवों को भी कंधा देते हैं. दिन भर में एक-दो शव मिलते हैं. डर तो लगता है, क्योंकि मौत से किसको डर नहीं लगता? लेकिन काम न मिलने पर भूखे प्यासे सोना पड़ता है.