रांची के बुढ़मू प्रखंड में दुर्गा पूजा का मुख्य आकर्षण ठाकुरगांव का ऐतिहासिक भवानी शंकर मंदिर है. यहां दुर्गा पूजा का इतिहास 500 साल पुराना है. नवरात्र शुरू होते ही यहां दूर-दूर से श्रद्धालु पूजा-अर्चना करने आते हैं. नवरात्रि में यहां पूजा के लिए विशेष व्यवस्था की जाती है. खास बात यह है कि इस मंदिर में तांत्रिक विधि से पूजा होती है. पूजा का इतिहास 500 साल पुराना है. राजपरिवार की कुलदेवी की मां भवानी शंकर मंदिर में 1543 ई. में कुंवर गोकुलनाथ शाहदेव ने पहली बार पूजा की थी. मंदिर में स्थापित अष्टधातु की युगल मूर्ति भवानी शंकर पूज्यनीय हैं, दर्शनीय नहीं. मान्यता है कि यहां स्थापित प्रतिमा की खुली आंखों से दर्शन करने पर आंख की रोशनी चली जाती है. दुर्गा पूजा के मौके पर पुजारी आंखों पर पट्टी बांधकर युगल मूर्ति का वस्त्र बदलते हैं एवं पूजा-अर्चना करते हैं.
मंदिर से 70 के दशक में प्रतिमा चोरी हो गई थी, जो सड़क निर्माण के दौरान रातू के इतवार बाजार के पास मिली थी. लंबी न्यायिक प्रक्रिया के बाद वर्ष 1991 में हाई कोर्ट द्वारा प्रतिमा का अधिकार ठाकुरगांव राजपरिवार को मिला. यहां षष्ठी को मंजन के साथ ही बकरे की बली दी जाती है. सप्तमी को कलश स्थापना और अष्टमी को संधि पूजा के दिन बकरे की बलि दी जाती है. नवमी को सैकड़ों बकरे और भैंसों की बलि देने की परंपरा है. यहां साल भर भवानी शंकर की पूजा करने श्रद्धालु आते रहते हैं, नवरात्रि के मौके पर बड़ी संख्या में लोग आते हैं.
पान बांटने की परंपरा
दशमी के दिन राजपरिवार के ठाकुर लाल रामकृष्णनाथ शाहदेव और उनके वंशजों द्वारा क्षेत्र के लोगों को पान बांटने की परंपरा है. मान्यता है कि इस मंदिर में मां भवानी शंकर साक्षात विराजमान हैं, इसलिए ठाकुरगांव क्षेत्र में कहीं भी दुर्गा पूजा का पंडाल निर्माण या मूर्ति स्थापना नहीं की जाती है.
मंदिर में पिछले वर्ष की तरह ही दुर्गा पूजा का आयोजन कोविड नियमों के पालन के साथ किया गया है. इस बार भी महानवमी के दिन सिर्फ राजपरिवार और विशिष्ट लोग ही बलि अर्पित कर सकेंगे. बता दें कि आम दिनों में महानवमी के दिन मंदिर में आसपास के कई गांवों के हजारों ग्रामीण जुटते हैं और हजारों बकरों की बलि दी जाती है, कोविड के कारण इसे प्रतिबंधित किया गया है.