ख्वाब तो उनके ख्लायों में भी पल रहे होते हैं जो आशियानों के नहीं बल्कि झोपियों के बाशिंदे होते हैं। कभी-कभी दुश्वारियों में जीने वाले भी ख्वाब देखने की जहमत उठा इतिहास रच दिया करते हैं। भले ही उनके कदम जमीं पर हों मगर फलक पर अपना आशियाना बना दिया करते हैं। आज हम आपको इस खास पेशकश में एक ऐसे ही शख्स से रूबरू कराने जा रहे हैं, जो भले ही जमीं पर पैदा हुआ हो, लेकिन उसके ख्वाब आसमानों से भी ऊंचे रहे हैं और अपने इन ख्वाबों को मुकम्मल करने के लिए ये शख्स हर मुसबीतों और दुश्वारियों को बौना साबित करता गया है।
इस नायाब शख्स से रूबरू होने से पहले पहले आपको सुपर 30 के प्रणेता रहे आनंद सर से मुखातिब होना पड़ेगा। जी हां.. ये वही आनंद सर हैं, जिन्होंने गरीबी, तंगहाली, बदहाली, अभावों को अपने कड़े परिश्रम से समाथ्यविहीन करार दे दिया। ये वही आनंद सर हैं, जिन्होंने यह बीड़ा उठा लिया कि जैसी पीड़ाएं मुझे झेलनी पड़ी है, वैसे पीड़ाएं किसी शख्स के झोले में न जाए। इसके लिए उन्होंने शुरू किया सुपर 30 और अपनी इस तलाश में उन्होंने बेशुमार गरीब बच्चों को अपनी काबिलियत के दम पर हीरा बना दिया। आज की तारीख में उनसे हजारों शागिर्द देश-विदेश की विख्यात कंपनियों में आनंद सर की वजह से अपनी काबिलियत का डंका बजा रहे हैं।
आज हम उनके एक ऐस ही शागिर्द से रूबरू कराने जा रहे हैं, जो भले ही गरीब परिवार में पैदा हुए। भले उनके पिता मजदूरी किया करते थे। भले ही वे एक ऐसे इलाके से ताल्लुक रखते था, जहां पर संसाधनों का अभाव रहा, मगर उस शख्स ने आनंद सर की अगुवाई में सफलता के उस स्तर तक पहुंचा है, जिसकी पैमाइश करने के लिए अभी तक कोई पैमाना नहीं बना है।
आनंद सर के इस शागिर्द का नाम सुजीत कुमार है। बिहार के मधेपुरा के रहने वाले सुजीत कुमार की तंगहाली का अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि यह पढ़ाई के दौरान ही ट्यूशन पढ़ाया करते थे। इनके पास खुद के पढ़ने के लिए कॉपी किताब नहीं हआ करती थी तो यह ट्यूशन से मिलने वाले पैसों से कॉपी किताब खरीदा करते थे। माता-पिता दोनों ही अशिक्षित थे। मधेपुरा जैसा इलाके से ताल्लुक रखना किसी त्रासदी से कम नहीं है, जहां पर अधिकांश लोग कल कारखानों के अभाव में कृषि पर आश्रित हैं। कभी बाढ़ की मार तो कभी सूखे की घात से फसलें बर्बाद होती है तो सीधा दो जून की रोटी पर आंच आ जाती है। ऐसी स्थिति में सुजीत के लिए अपने ख्वाबों को मुकम्मल करना किसी जंग-ए-मैदान में फतह पाने से कम नहीं था। जब कभी खेती बाड़ी काम नहीं चलता तो सुजीत के पिता दिहाड़ी मजदूरी करते। ऐसे में घर का खर्चा चालना भी मुश्किल हो जाता।
ऐसी स्थिति में सुजीत ने एक सपना देखा इंजीनियर बनने का। लेकिन उचित गाइलाइन नहीं मिलने के कारण इन्हें बहुत सारी दर्द और पीड़ाओं का सामना करना पड़ा, जिन्हें शायद ही कभी शब्दों में तब्दील किया जा सकता है। सुजीत बताते हैं कि भले ही उनके पिता अशिक्षित हो, लेकिन उन्होंने हमेशा सुजीत की पढ़ाई का समर्थन किया। इसके बाद सुजीत आगे पढ़ते चले गए। 10वीं में उनके अच्छे अंक आए। इसके बाद सुजीत ने इंजीनियर बनने की ठानी। लेकिन मुश्किलें अभी कहां थमने वाली थी। पैसों का अभाव था, इसलिए पटना जाकर ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया। इसके बाद किसी ने इन्हें आनंद सर के बारे में बताया। सुजीत को पता चला कि आनंद सर गरीब बच्चे को ट्यूशन पढ़ाते हैं। इसके बाद सुजीत आनंद सर के संपर्क में आया और फिर जीतोड़ मेहनत कर पढ़ाई कर ली आईआईटी-बीएचयू में उसका चयन हुआ।
इसके बाद जब सुजीत की पढ़ाई पूरी हुई तो उसे एक अच्छी कंपनी में नौकरी भी मिल गई। लेकिन सुजीत ने थोड़े समय पश्चात नौकरी छोड़ने का फैसला लियें और एक निःशुल्क विद्यालय की स्थापना करने के साथ खुद एक प्रतिष्ठित संस्थान में शिक्षक बन बच्चों को पढ़ाने लगें। इन्होंने अपने जीवन में संकल्प लिया कि ये जिस तरह की समस्याओं से रूबरू हुए हैं… वैसे ही समस्याए कोई और न झेले