वायु प्रदूषण से होने वाले नुकसान के संबंध में एक नया अध्ययन हुआ है। इसके अनुसार, हवा में प्रदूषकों के अत्यंत छोटे कण (फाइन पार्टिकुलेट) डिमेंशिया के उच्च जोखिम से जुड़े पाए गए हैं। बता दें कि डिमेंशिया कई लक्षणों के समूह को कहते हैं, जिनसे मस्तिष्क को नुकसान पहुंचता। चूंकि शरीर को दिमाग ही नियंत्रित करता है, इसलिए डिमेंशिया से पीड़ित व्यक्ति अपने नियमित काम ठीक से नहीं कर पाता है।यूनिवर्सिटी आफ वाशिंगटन के शोधकर्ताओं ने वायु प्रदूषण और डिमेंशिया के बीच संबंध जानने के लिए पूर्व में किए गए दो अध्ययनों के डाटा का इस्तेमाल किया।
एक अध्ययन में वायु प्रदूषण को मापा गया था और दूसरे में डिमेंशिया के जोखिम वाले कारकों की पड़ताल की गई थी। ताजा अध्ययन का निष्कर्ष इन्वायरमेंटल हेल्थ पर्सपेक्टिव्स जर्नल में प्रकाशित हुआ है। यूनिवर्सिटी आफ वाशिंगटन के इस अध्ययन के मुताबिक, हवा में फाइन पार्टिकल (पीएम 2.5 या पार्टिकुलेट मैटर 2.5 माइक्रोमीटर या उससे छोटे) की थोड़ी सी भी मात्र सिएटल क्षेत्र में बढ़ जाने के कारण वहां के निवासियों में डिमेंशिया का जोखिम बढ़ गया। शोधकर्ता और अध्ययन के मुख्य लेखक राचैर शाफर ने बताया, हमने पाया कि इस प्रदूषक की मात्र प्रति घन मीटर में एक माइक्रोग्राम बढ़ने से डिमेंशिया का जोखिम 16 फीसद तक बढ़ जाता है। यही संबंध डिमेंशिया के एक रूप अल्जाइमर के साथ भी पाया गया।
अध्ययन के लिए सिएटल क्षेत्र के चार हजार से ज्यादा निवासियों को 1994 में एडल्ट चेंजेज इन थाउट (एक्ट) के तहत सूचीबद्ध किया गया था। इनमें से करीब एक हजार लोगों को किसी न किसी समय में डिमेंशिया के लक्षणों से ग्रस्त पाया गया। डिमेंशिया के इन रोगियों की पहचान होने के बाद शोधकर्ताओं ने उनके क्षेत्र में औसत वायु प्रदूषण का आकलन करते हुए यह पता लगाया कि पीड़ित व्यक्ति में किस उम्र में बीमारी का पता चला। उदाहरण के लिए, यदि किसी व्यक्ति में 72 साल की उम्र में डिमेंशिया का पता चला तो शोधकर्ताओं ने अन्य लोगों के मामले से इसकी तुलना की कि एक दशक बाद जब वे 72 साल के होंगे तो प्रदूषण के कारण कितना जोखिम होगा। इसके अलावा विश्लेषण में इसका भी आकलन किया गया कि दशक के विभिन्न वर्षो में जब प्रदूषण के स्तर में गिरावट आई तो क्या असर रहा। अपने अंतिम विश्लेषण में शोधकर्ताओं ने पाया कि प्रति घन मीटर में मात्र एक माइक्रोग्राम के अंतर होने पर रहवासियों में डिमेंशिया का जोखिम 16 फीसद तक बढ़ गया।
शाफर ने बताया कि हम जानते हैं कि डिमेंशिया के लक्षण दिखने में वर्षो का समय लगता है और जांच में दशकों बाद पकड़ में आता है। इसलिए जरूरी है कि इस संबंध में अध्ययन दीर्घावधिक होना चाहिए। उल्लेखनीय है कि डिमेंशिया का जोखिम जहां खानपान, व्यायाम और आनुवंशिकता से भी जुड़ा है, वहीं अब यह बात भी सामने आई है कि वायु प्रदूषण भी जोखिमों के प्रमुख घटकों में शामिल है। इसके मुताबिक, इस बात के सुबूत मिले हैं कि वायु प्रदूषण का असर न्यूरोडिजेनेरेटिव (तंत्रिका तंत्र पर दुष्प्रभाव) के रूप में सामने आता है। इसलिए वायु प्रदूषण वाले स्थानों पर रहने से बचकर डिमेंशिया के जोखिमों को कम कर सकते हैं। पहले यह माना जाता था कि वायु प्रदूषण का असर सांस संबंधी समस्याओं तक ही सीमित होता है, लेकिन बाद में यह भी सामने आया कि इसका दुष्प्रभाव हृदय रोगों में भी होता है और अब इसके प्रमाण मिले हैं कि इसका प्रभाव हमारे मस्तिष्क पर भी पड़ रहा है।