भारत से जब चीन के संबंधों की बात आती है तो तिब्बत इसमें एक अहम मुद्दा होता है। इसी को आधार बनाकर चीन अक्सर अरुणाचल प्रदेश को लेकर अपने दावे करता है और तवांग को अपना हिस्सा बताता है। वह भारत के साथ सीमा निर्धारण करने वाली मैकमोहन लाइन को भी मानने से इनकार करता है और कहता है कि तिब्बत का बड़ा हिस्सा भारत के पास है। हालांकि चीन के इन दावों का न तो अंतराष्ट्रीय कानूनों के हिसाब से कोई आधार है और न ही भू-राजनीतिक परिस्थितियां उसके अनुकूल हैं।
चीन के साथ सीमा विवाद के बीच वर्ष 1962 में भारत को उस युद्ध से भी गुजरना पड़ा, जिसके लिए वह न तो मनोवैज्ञानिक तौर पर न ही सामरिक तौर पर तैयार था। इस युद्ध में भारत की भले हार हुई, पर उसने चीनी दांव को अच्छी तरह समझ लिया था और अरुणाचल प्रदेश में लगातार अपनी स्थिति मजबूत करने पर ध्यान केंद्रित किया। ऐसे में पूर्वी फ्रंट चीन के साथ सीमा विवाद में तिब्बत एक अहम मसला हो जाता है, जहां 1950 में चीनी सैनिकों ने हमला कर इसे अपने कब्जे में ले लिया था। उस वक्त दलाई लामा के साथ बड़ी संख्या में तिब्बतियों ने भारत में शरण ली थी।
चीन के साथ कई मोर्चों पर सीमा विवाद को लेकर तनाव का सामना कर रही सेना ने अब उसी तिब्बत के जरिये प्रतिद्वंद्वी को मात देने की खास रणनीति बनाई है। इसके तहत सैन्य अधिकारियों को तिब्बत के बारे में विस्तृत जानकारी देने पर विचार किया जा रहा है, ताकि वे तिब्बत के इतिहास, वहां की संस्कृति और भाषा को जान और समझ सकें। इसके तहत सैन्य अधिकारियों को बकायदा ‘स्टडी लीव’ दिए जाने की बात भी सामने आ रही है। बताया जा रहा है कि तिब्बत के जरिये चीन पर मनोवैज्ञानिक बढ़त हासिल करने के लिए इस योजना को अंतिम रूप दिया जा रहा है।
जानकारों का कहना है कि देश की आम अवाम से लेकर सैन्य अफसर और जवान जहां पश्चिमी फ्रंट पर पाकिस्तान के बारे में एक सामान्य समझ रखते हैं, उस तरह की समझ चीन को लेकर नहीं है। सेना में ऐसे अफसरों की संख्या बहुत कम है, जो चीन के बारे में व्यापक जानकारी रखते हैं। उसमें भी तिब्बत को समझने वालों की संख्या और भी कम है, जिसे बढ़ाने की आवश्यकता है। तिब्बत को लेकर भाषाई, सांस्कृतिक और व्यावहारिक समझ विकसित करने के साथ-साथ उन्हें मैंडरीन (चीनी भाषा) भी सीखने की जरूरत है और इसके लिए व्यापक अध्ययन की आवश्यकता है।
भारत अब तक चीन के खिलाफ ‘तिब्बत कार्ड’ के इस्तेमाल से बचता रहा है, लेकिन अब बताया जा रहा है कि पूर्वी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर तनाव और गलवान घाटी में 20 जवानों की शहादत के बाद सेना ने अपनी रणनीतियां बदलने का फैसला किया है। ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ की एक रिपोर्ट के अनुसार, सैन्य अफसरों को जिन स्थानों पर तिब्बत के बारे में जानकारी जुटाने के लिए अध्ययन अवकाश पर भेजे जाने की योजना है, उसके लिए सात संस्थानों की पहचान की गई है। तिब्बत के बारे में अध्ययन को लेकर यहां दो साल का कोर्स होगा।
इसके लिए जिन संस्थानों की पहचान की गई है, उनमें दिल्ली विश्वविद्यालय के अंतर्गत बौद्ध अध्ययन विभाग, उत्तर प्रदेश में वाराणसी स्थित सेंट्रल इंस्टिट्यूट फॉर हाइयर तिब्बतन स्टडीज, बिहार का नवा नालंदा महाविहार, पश्चिम बंगाल में विश्व भारती, कर्नाटक में बेंगलुरु स्थित दलाई लामा इंस्टिट्यूट फॉर हाइयर एजुकेशन, सिक्किम में गंगटोक स्थित नामग्याल इंस्टिट्यूट ऑफ तिब्बतॉलजी और अरुणाचल प्रदेश के दाहुंग में स्थित सेंट्रल इंस्टिट्यूट ऑफ हिमालयन कल्चर स्टडीज शामिल है। योजना के मुताबिक, सैन्य अफसर यहां तिब्बत के बारे में जानकारी जुटा सकेंगे।