हिन्दू धर्म के लिये आस्था और विश्वास का प्रतीक रक्षा कवच ‘कलावा’ को तैयार करने के पुश्तैनी काम को प्रयागराज के 500 मुस्लिम परिवार आज भी करते आ रहे हैं। इलाहाबाद-लखनऊ मार्ग पर स्थित करीब 35 किलोमीटर दूर स्थित लालगोपाल गंज के खजानपुर और अल्हादगंज गांव में करीब 500 से अधिक मुस्लिम परिवार हिंदू धर्म में पवित्र माना जाने वाला कलावा धागे को अपने हाथों से तैयार करते हैं।
कलावा कारोबारी डा अलीम ने बताया कि मुस्लिम परिवार अपने हाथों से हिन्दुओं के लिए सदियों से कलावा तैयार कर साम्प्रदायिक सौहार्द की मिसाल पेश करते आ रहे हैं। देवी-देवताओं के आवाहन के लिए आयोजित समारोहों और पूजा-पाठ एवं मांगलिक कार्यों में कलाई पर बांधा जाने वाला धागा कलावा है।
उन्होने बताया कि, “ यह सच है कि कलावा एक धर्म का प्रतिनिधित्व करता है, लेकिन इससे ज्यादा यह हिंदू-मुस्लिम को एक साथ बांधने का माध्यम है, जो कौमी एकता का संदेश फैला रहा है। भले ही हमें इस धंधे में ज्यादा मुनाफा न होता हो, लेकिन जब हिंदू भाई ईश्वर को कलावा चढ़ाते हैं तो उनके सहयोग से हमें भी ऊपर वाले की कृपा मिल जाती है।”
डा अलीम ने बताया कि वक्त भले ही बदल गया हो, लेकिन इस गांव के मुस्लिम परिवारों ने अपनी कमाई का जरिया नहीं बदला है,बल्कि इन गावों के मुस्लिम परिवार की दो जून की रोजी-रोटी का जरिया ये धागा ही है। कलावा दो धर्मों के बीच भाईचारे का प्रतीक भी बना हुआ है। उनके लिए इससे बड़ी इबादत कोई दूसरा नहीं कि उनके हाथों का बना धागा हिंदुओं के पूजा-पाठ के उपयोग में प्रयुक्त होता है। उन्होने बताया कि करीब डेढ़ से दो टन कलावा प्रति दिन तैयार होता है।
उन्होने बताया कि कांग्रेस और समाजवादी पार्टी(सपा) सरकारों ने रंगरेजों के लिए कुछ नहीं किया। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से थोड़ी उम्मीद थी लेकिन उसका भी ध्यान इधर नहीं जा रहा है। उन्होने कहा कि सरकार रोजगारों को बढ़ावा देने के लिए तमाम योजनाएं तैयार कर रही हैं, यदि कलावा और चुनरी उद्योग को भी बढ़ावा मिल जाए तो सैकड़ों परिवारों के लिए यह बेहतर रोजगार का अवसर बन सकता है।
डा अलीम ने बताया कि राजाओं-महाराजाओं का काल इस उद्योग के लिए स्वर्णिम काल रहा है। उस समय इसको राजा और महाराजाओं का संरक्षण प्राप्त था। उन्होने बताया कि भदरी स्टेट के तत्कालीन महाराजा ने उनके नाना अब्दुल हमीद बाबा की चुनारी बनाने की कला से खुश होकर करीब तीन बीघे का आम का बाग नजराना के रूप में दिया था। जिसमें इनका एक कारखाना चल रहा है। इस काम में लगे लोगों का कहना है कि वे हर महीने आठ से नौ हजार रुपये के बीच मुनाफा कमा लेते हैं।
कलावा निर्माण करने वाले नफीस अहमद कहते हैं, ”यहां कलावा बनाने का काम प्रत्येक दिन तड़के पांच बजे से शुरू हो जाता है। कलावा निर्माण की प्रक्रिया कच्चे धागों को लच्छों में बांटने से शुरू होती है, जिसे घर की महिलाएं करती हैं। कच्चा धागा पावरलूम का अपशिष्ट होता है जिसे महाराष्ट्र के भिवंडी से लाया जाता है।
नफीस के मुताबिक लच्छे बनाने के बाद उन्हें लाल और पीले रंग के गर्म पानी में डुबोकर रस्सियों पर लटकाकर सुखाया जाता है। सूखने के बाद रक्षा सूत्र तैयार हो जाते हैं, फिर उन्हें थोक विक्रेताओं को भेज दिया जाता है।
निजामुद्दीन ने बताया, “नवरात्रि या अन्य हिंदू त्योहारों के दौरान कलावा की मांग बढ़ जाती है। यहां का कलावा उत्तर प्रदेश के अलावा मैहर देवी, वैष्णो देवी, कालका जी, बालाजी मंदिर जैसे प्रसिद्ध मंदिरों में जाता है। यहां कलावा निर्माण एक व्यवसाय से ज्यादा हिंदू-मुस्लिम सम्बंधों को मजबूत कर रहा है। हमें उनपर गर्व करना चाहिए कि हम ऐसे लोगों के बीच रह रहे हैं जो साम्प्रदायिक सौहार्द का संदेश फैला रहे हैं।”
उन्होने बताया कि कलावा के धागे को रंगने वाले रंग को कानपुर से मंगाया जाता है। इसके काटन के धागे को भिवंडी, मालेगांव से मंगाया जाता है। इसके बाद इसे धागे की तरह कई लच्छो में बांटा जाता है। इसके बाद इनकी रंगाई की जाती है। वहीं, जिस रंग को इन लच्छों पर चढ़ाकर कलेवा बनाया जाता है। इसके बाद गर्म पानी में रंग घोलकर उसमें लच्छे डाले जाते हैं। इसके बाद इन्हें सुखाने का काम किया जाता है।
वैदिक शोध एंव सांस्कृतिक प्रतिष्ठान कर्मकाण्ड प्रशिक्षण केन्द्र के पूर्व आचार्य डा आत्माराम गौतम ने बताया कि हिंदू धर्म में किसी भी धार्मिक कर्मकांड शुरू होने से पहले और मांगलिक कार्यक्रम पर ही कलावा बांधा जाता है। माना जाता है कि यह कलावा संकटों के समय रक्षा कवच बनता है। मान्यता है कि इसे बांधने से सकारात्मक ऊर्जा मिलती है। अनुष्ठान के दौरान यह पुरोहित द्वारा बांधा जाता है। कलावा को मौली भी कहा जाता है। इस पतले धागे के गुण के बारे में बहुत कम लोग जानते है कि यह धारक के अंदर सकारात्मक ऊर्जा पैदा करता है। यदि हाथ में ये धागा धारक अपनी समस्या या इष्ट देवता के अनुसार से धारण करें तो इसके कई अच्छे परिणाम धारक को प्राप्त होते हैं।
उन्होने बताया कि कलावा को सिर्फ तीन बार ही लपेटना चाहिए। वैसे कलावा भी दो तरह के होते हैं। तीन धागों वाला और पांच धागों वाला। तीन धागों वाले कलावा में लाल, पीला और हरा रंग होता है। वहीं पांच धागे वाले कलावे में लाल, पीरा व हरे रंगे के अलावा सफेद और नीले रंग का भी धागा होता है। पांच धागे वाले कलावा को पंचदेव कलावा भी कहते हैं।