अफगानिस्तान के 34 प्रांतों में से 33 में तालिबान ने कब्जा जमा लिया है, लेकिन अब भी पंजशीर घाटी उसके लिए अविजित है। खुद को राष्ट्रपति घोषित कर चुके अमलरुल्लाह सालेह यहीं के रहने वाले हैं। उन्होंने तालिबान को ऐसे दौर में पंजशीर घाटी को जीतने की चुनौती दी है, जब प्रेसिडेंट अशरफ गनी समेत कई नेता जान का डर देखकर भाग गए हैं। अमलरुल्लाह सालेह के अलावा इसी राज्य में अहमद मसूद भी हैं, जिनके पिता अहमद शाह मसूद तालिबान के खिलाफ लड़ते हुए मारे गए थे। अमरुल्लाह सालेह ने 17 अगस्त को एक ऑडियो संदेश जारी कर कहा था, ‘अफगानिस्तान के संविधान के मुताबिक यदि राष्ट्रपति गैर-हाजिर रहता है या फिर इस्तीफा दे देता है तो फिर पहला उपराष्ट्रपति ही कार्यवाहक राष्ट्राध्यक्ष हो जाता है।’
अमरुल्लाह सालेह ने तालिबान को चुनौती देते हुए कहा कि मैं अपने देश के लिए खड़ा हूं और युद्ध अभी खत्म नहीं हुआ है। कभी एक जासूस के तौर पर काम करने वाले अमरुल्लाह सालेह आज देश के शीर्ष नेताओं में से हैं और तालिबान के खिलाफ जंग का प्रतीक बनकर उभरे हैं।
सालेह की बहन को तालिबान ने यातनाएं देकर मारा था
अमरुल्लाह सालेह का जन्म पंजशीर में अक्टूबर 1972 में हुआ था। ताजिक मूल के परिवार में जन्मे अमरुल्लाह सालेह कम उम्र में ही अनाथ हो गए थे। लेकिन उन्होंने कम उम्र में ही अहमद शाह मसूद के तालिबान विरोधी आंदोलन को जॉइन कर लिया था। अमरुल्लाह सालेह निजी तौर पर तालिबान का दंश झेल चुके हैं। रिपोर्ट्स के मुताबिक 1996 में तालिबानों ने उनकी बहन का अपहरण कर लिया था और हत्या कर दी थी। खुद सालेह ने टाइम मैगजीन के लिए लिखा था कि 1996 में जो हुआ, उसके बाद से तालिबान को लेकर मेरा नजरिया बदल गया था। इस घटना ने उनके मन में तालिबान के खिलाफ गुस्सा भर दिया था और वह मसूद के आंदोलन का ही हिस्सा बन गए। उनके प्रभाव को इससे भी समझा जा सकता है कि ताजिकिस्तान के दुशांबे में स्थित अफगानिस्तान दूतावास ने उनकी ही तस्वीर लगा ली है।
जासूस के तौर पर भी किया है काम
अमरुल्लाह सालेह 2001 तक अहमद शाह मसूद के आंदोलन से जुड़े रहे थे, लेकिन अमेरिका में जब आतंकी हमला हुआ तो फिर उनकी भी दिशा बदल गई। इसके बाद वह अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए के लिए एक बड़ी एसेट बन गए थे। यहां तक कि उनका यह रिश्ता ही था कि जब तालिबान का राज खत्म हुआ था तो वह सत्ता में आए। 2004 में उन्हें अफगानिस्तान की नई बनी इंटेलिजेंस एजेंसी का हेड बनाया गया था। जो नेशनल सिक्योरिटी डायरेक्टोरेट के नाम से काम करती है। इस दौरान उन्होंने एक बड़ा नेटवर्क तैयार किया, जो तालिबान के बारे में जानकारियां देता था।
करजई से मतभेदों के बाद राजनीति में आए
अमरुल्लाह सालेह ने खुफिया एजेंसी के हेड के पद से 6 जून, 2010 को एक आतंकी हमला होने के बाद इस्तीफा दे दिया था। उस वक्त हामिद करजई राष्ट्रपति थे, जिनसे उनके मतभेद थे। करजई तालिबान से बात करने के हिमायती थे और सालेह ने इसका विरोध किया था। उनका कहना था कि तालिबान का बात करना एक ट्रैप है। लेकिन उसके बाद भी करजई ने बात की और यहीं से दोनों के रिश्ते खराब होते चले गए। यही नहीं 2011 में सालेह ने करजई के खिलाफ एक शांतिपूर्ण आंदोलन की शुरुआत कर दी थी। इसके बाद वह अशरफ गनी के साथ आए और फिर जब उन्हें सितंबर 2014 में सत्ता मिली तो वह उपराष्ट्रपति बने।