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जब मुलायम सिंह यादव ने अपने ही गुरु के बेटे को दी सियासी पटकनी, सियासी दंगल के सूरमा बनने की पूरी कहानी

सैफई के एक सामान्य परिवार से देश की संसद तक का सफर तय करने वाले मुलायम सिंह यादव हमेशा अपने लक्ष्यों के प्रति सतर्क और सजग रहे। चंद्रशेखर की नाराजगी मोल लेकर वीपी सिंह को समर्थन देना हो या फिर न्यूक्लियर डील में फंसी कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार को बचाने के लिए समर्थन देना हो, मुलायम राजनीतिक अखाड़े के एक कुशल पहलवान थे। जिस समाजवादी पार्टी का अस्तित्व आज हम लोग देखते हैं उसके पीछे मुलायम सिंह यादव का दशकों का उनका संघर्ष रहा है। एक वक्त ऐसा भी आया जब उन्होंने अपने गुरु की पार्टी को ही तोड़ दिया…

क्या है वो कहानी? 

22 नवंबर 1939 को जन्में मुलायम सिंह यादव का झुकाव पहले से ही समाजवादी विचारधारा की तरफ रहा। 1967 में राम मनोहर लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से इटावा की जसवंतनगर सीट से विधायक बने। लोहिया के निधन के बाद सोशलिस्ट पार्टी और मुलायम दोनों कमजोर हुए। लेकिन मुलायम कहां रुकने वाले थे। यह वक्त उत्तर प्रदेश की राजनीति में ऐसा था, जब धोती-कुर्ता और टोपी पहनने वाले एक व्यक्ति की धमक काफी बढ़ गई थी। मौके की नजाकत भांप मुलायम भी उस शख्स के साथ हो लिए। यह शख्स कोई और नहीं चौधरी चरण सिंह थे। 1974 में चौधरी चरण सिंह की पार्टी भारतीय क्रांतिदल के टिकट पर मुलायम सिंह यादव फिर चुनावी समर में उतरे और विधानसभा पहुंचे। सैफई के इस नौजवान की रफ्तार पर दूसरी बार ब्रेक आपातकाल के दौरान लगा। चौधरी चरण सिंह जेल भेज दिए गए। उनके सहयोगियों की भी धर-पकड़ तेज हुई। मुलायम सिंह यादव समेत कई अन्य लोगों को भी आपातकाल की कई रातें जेलों में गुजारनी पड़ीं।

सैफई का नौजवान अब नेता जी हो गया था..

जेल से छूटने के बाद मुलायम सिंह यादव की किस्मत ने करवट ली। 1977 के दौरान प्रदेश में जनता पार्टी की सरकार बनी, मुलायम सिंह यादव अब मंत्री बन गए। यह वही दौर था जब चौधरी चरण सिंह दिल्ली चले गए। मुलायम ने मिले मौके का लाभ उठाया और प्रदेश में अपनी जड़ें जमाने में लग गए। लेकिन 1980 आते-आते दोहरी सदस्ता के चलते जनता पार्टी टूट गई। मुलायम सिंह यादव को फिर चुनावी समर में उतरना पड़ा। 1980 में हुए इस चुनाव में मुलायम को हार का सामना करना पड़ा। सत्ता हाथ से जाने के बाद संगठन की कमान मिली। चुनाव हारने के बाद भी लोकदल के अध्यक्ष बने। मुलायम अपनी इमेज चौधरी चरण सिंह के उत्तराधिकारी के तौर पर बनाने लगे। इसमें सफलता भी मिल रही थी, क्योंकि चौधरी अजीत सिंह अमेरिका में थे। अजीत सिंह और चौधरी चरण के बीच उस समय संबंध कैसा था। पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, “एक दिन चौधरी चरण सिंह ने मुझसे कहा कि मेरा दामाद पुलिस में था, उसको मोरारजी भाई ने बिना मुझसे पूछे विदेश में नियुक्त कर दिया। मेरा बेटा अमेरिका रहता है, उससे मेरा लगाव नहीं, मेरा मन कभी-कभी उदास हो जाता है तो दामाद के यहां चला जाता हूं…..”

पार्टी को लेकर रार

साल 1980 में चरण सिंह ने अपनी पार्टी का नाम बदलकर लोकदल कर दिया। 1985 के विधानसभा चुनाव में वो फिर से विधायक बने। उनका कद और बढ़ा, उन्हें विपक्ष का नेता बना दिया गया। लेकिन दो साल बाद ही एक बार फिर मुलायम सिंह यादव की किस्मत ने करवट ली। 1987 में चौधरी चरण सिंह के निधन के बाद अजीत सिंह पार्टी का नियंत्रण अपने हाथ में लेने की कोशिशों में तेजी से जुट गए। कहा जाता है कि उन्हीं के इशारे पर मुलायम सिंह यादव को विपक्ष के नेता का पद छोड़ना पड़ा। लेकिन इस बार मुलायम भिड़ने तो तैयार थे। लोकदल दो हिस्सो में बंट गया। लोकदल (अ) अजीत सिंह और लोकदल (ब) मुलायम सिंह यादव के साथ हो गया। विपक्ष का नेता पद छोड़ने के बाद भी मुलायम जमीन पर मेहनत करते रहे। 2 साल बाद अजीत सिंह को राजनीतिक अखाड़े में पटखनी देने के बाद मुलायम सिंह यादव बीजेपी के 57 विधायकों के साथ पहली बार मुख्यमंत्री बने। इसके बाद उन्होंने दो बार और मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। देश के रक्षा मंत्री भी रहे। 2012 में जब समाजवादी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला तो साइकिल की कमान बेटे अखिलेश को सौंप दी।

कैसे रखी गई समाजवादी पार्टी की नींव? 

चन्द्रेशखर अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, “समाजवादी जनता पार्टी से अलग होकर मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी बनाई। मुझे नहीं मालूम कि उन्होंने ऐसा क्यों किया। कई किस्से सुनता हूं….मुझे बताया जाता है कि 1993 की पहली तिमाही में बसपा के कांशीराम से उनकी कई मुलाकातें हुईं थीं। उन मुलाकातों में जो खिचड़ी पकी, उससे मुलायम सिंह ने अपनी पार्टी बनाई।”