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इस श्मशान में तवायफों की घुंघरुओं और तेज संगीत के बीच जलती है चिता

हमारा भारतवर्ष विविधताओं का देश है, यंहा कई ऐसी घटनाएं और रीत हैं जिनके बारे में हम या तो जानते ही नहीं या फिर अगर जानते भी हैं तो उसके पीछे की वजह से अनजान और अनभिज्ञ होते हैं। ऐसा ही कुछ विचित्र है काशी का मणिकर्णिका घाट श्‍मसान। यह बहुत ही मशहूर है , जिसके बारे में कहा जाता है कि यहां चिता पर लेटने वाले को सीधे मोक्ष मिलता है। दुनिया का वो इकलौता श्मशान जहां चिता की आग कभी ठंडी नहीं होती। जहां लाशों का आना और चिता का जलना कभी नहीं थमता। लेकिन आपको शायद एक बात नहीं मालूम होगी कि खामोश, ग़मगीन, उदास और बीच बीच में चिताओं की लकड़ियों के चटखने की आवाज अमूमन किसी भी श्मशान का मंज़र या माहौल कुछ ऐसा ही होता है। लेकिन अचानक अगर श्‍मासान में घुंघरु बजने लग जाए और ढोलक की थाप पर ठुमरी का नाच होने लगे तो।

जी हां आप नहीं मानेंगे कि मणिकर्णिका घाट में एक ऐसी रात आती है जब इस श्मशान के लिए जश्न की रात होती है। इस एक रात में इस श्मशान पर एक साथ चिताएं भी जलती हैं और घुंघरुओं और तेज संगीत के बीच वैश्‍याओं के कदम भी थिरकते हैं। आइए जानते हैं आखिर क्‍यूं यहां नगरवधु जलती चिताओं के बीच नाचती-गाती है। चैत्र नवरात्रि अष्‍टमी को आती है ये रात दरअसल ये 350 साल पुरानी एक पराम्‍परा है जिसमें वैश्‍याएं पूरी रात यहां जलती चिताओ के पास नाचती है और थिरकती है। साल में एक बार एक साथ चिता और महफिल दोनों का ही गवाह बनता है काशी का मणिकर्णिका घाट। चैत्र नवरात्रि अष्टमी को सजती है इस घाट पर मस्ती में सराबोर एक चौंका देने वाली महफ़िल। एक ऐसी महफ़िल जो जितना डराती है उससे कहीं ज्यादा हैरान करती है.

दरअसल चिताओं के करीब नाच रहीं लड़कियां शहर की बदनाम गलियों की नगर वधु होती हैं। कल की नगरवधु यानी आज की तवायफ। पर इन्हें ना तो यहां जबरन लाया जाता है ना ही इन्हें इन्हे पैसों के दम पर बुलाया जाता है। काशी के जिस मणिकर्णिका घाट पर मौत के बाद मोक्ष की तलाश में मुर्दों को लाया जाता है वहीं पर ये तमाम नगरवधुएं जीते जी मोक्ष हासिल करने आती हैं। वो मोक्ष जो इन्हें अगले जन्म में नगरवधू ना बनने का यकीन दिलाता है। इन्हें यकीन है कि अगर इस एक रात ये जी भरके यूं ही नाचेंगी तो फिर अगले जन्म में इन्हें नगरवधू का कलंक नहीं झेलना पड़ेगा। सैकड़ों साल पुरानी है यह परम्परा काशी के इस घाट पर ये सबकुछ अचानक यूं ही नहीं शुरू हो गया.

बल्कि इसके पीछे एक बेहद पुरानी परंपरा है। श्मशान के सन्नाटे के बीच नगरवधुओं के डांस की परंपरा सैकड़ों साल पुरानी है। मान्यताओं के मुताबिक आज से सैकड़ों साल पहले राजा मान सिंह द्वारा बनाए गए बाबा मशान नाथ के दरबार में कार्यकम पेश करने के लिए उस समय के जाने-माने नर्तकियों और कलाकारों को बुलाया गया था लेकिन चूंकि ये मंदिर श्मशान घाट के बीचों बीच मौजूद था, लिहाजा तब के चोटी के तमाम कलाकारों ने यहां आकर अपने कला का जौहर दिखाने से इनकार कर दिया था , चूंकि राजा ने डांस के इस कार्यक्रम का ऐलान पूरे शहर में करवा दिया था, लिहाज़ा वो अपनी बात से पीछे नहीं हट सकते थे।

लेकिन बात यहीं रुकी पड़ी थी कि श्मशान के बीच डांस करने आखिर आए तो आए कौन? इसी उधेड़बुन में वक्त तेज़ी से गुज़र रहा था। लेकिन किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। जब किसी को कोई उपाय नहीं सूझा तो फैसला ये लिया गया कि शहर की बदनाम गलियों में रहने वाली नगरवधुओं को इस मंदिर में डांस करने के लिए बुलाया जाए। उपाय काम कर गया और नगरवधुओं ने यहां आकर इस महाश्मशान के बीच डांस करने का न्योता स्वीकार कर लिया। ये परंपरा बस तभी से चली आ रही है। यहां आने वाली कोई भी नगर वधु पैसा नहीं लेती बल्कि मन्नत का चढ़ावा अर्पित करके जाती है। कलकत्ता, बिहार, मऊ, दिल्ली, मुंबई समेत भारत के कई स्थानों से नगरवधुएं यहां आती हैं।