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‘बुआ और बबुआ’ में फंसा सियासी समीकरण, BSP के वोट बैंक में अखिलेश ने ऐसे कर दी सेंधमारी

2019 के लोकसभा चुनाव में जब समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने गठबंधन किया था तो कहा जा रहा था कि ‘बुआ और बबुआ’ का यह साथ अटूट और अजेय है। चुनाव परिणाम आने के बाद जमीनी हकीकत कुछ और ही दिखी। 2014 में शून्य पर सिमट चुकी बसपा को 10 सांसद तो मिले लेकिन सपा के खाते में महज पांच सीट ही आई। चुनाव परिणाम आने के बाद मायावती ने अखिलेश यादव पर कई आरोप लगाते हुए गठबंधन तोड़ दिया। गठबंधन टूटने के बाद अखिलेश यादव खामोश रहे और कोई पलटवार नहीं किया। अब जब कुछ महीनों में विधानसभा चुनाव होने है। ऐसे में बसपा छोड़कर समाजवादी पार्टी में शामिल होने वाले नेताओं का तांता लगा हुआ है। अखिलेश यादव की रणनीति कामयाब रही और वे गैर यादव वोटों को सपा के पाले में लाकर बसपा को तगड़ा झटका दे रहे हैं। बसपा के आधार वोट का अखिलेश यादव ने खिसका दिया है।

Akhilesh-Yadav-and-Mayawati

जिन बसपा नेताओं ने हाल ही में सपा ज्वाइन किया है उनमें घाटमपुर से विधायक आरपी कुशवाहा, पूर्व कैबिनेट मंत्री केके गौतम, सहारनपुर से सांसद कादिर राणा, बसपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष आरएस कुशवाहा का नाम शामिल है। इस बीच सोमवार को मौजूदा विधायक लालजी वर्मा और रामअचल राजभर ने भी सपा का दामन थाम लिया। इन दो बड़े नेताओं का सपा में जाना बसपा के लिए बड़ी क्षति के रूप में देखा जा रहा हैं। लालजी वर्मा को कुर्मी समाज का बड़ा नेता माना जाता है जबकि रामअचल राजभर का अपने समाज में बड़ा कद है। दोनों ही नेता बसपा सरलार में कैबिनेट मंत्री भी रच चुके हैं।

 

मायावती ने कही ये बात

पार्टी से छोड़कर नेताओं के जाने पर भले ही पार्टी में बड़े चेहरों की कमी साफ दिख रही हो लेकिन मायावती का मानना है कि समाजवादी पार्टी में भगदड़ मचने से पहले अपने चेहरे को बचाने की कवायद है। मायावती ने कहा कि स्वार्थी, टिकट लोभी और दूसरे पार्टियों से निकाले गए नेताओं को सपा में शामिल करने से सपा का वोटबैंक नहीं बढ़ने वाला है। मायावती ने कहा कि यह महज खुद को झूठे आरामदायक स्थिति में दिखाने जैसा ही है। उन्होंने अखिलेश यादव को कहा कि जनता सब कुछ जानती है। अगर सपा ऐसे नेताओं को पार्टी में ले रही है तो उनके पार्टी में जो लोग टिकट चाहते हैं वे भी दूसरी पार्टियों में जाएंगे। इससे उन्हें कोई फायदा नहीं होगा बल्कि ज्यादा नुकसान होगा। मायावती ने उनके नुकसान के कारण भी बता दिये।

रणनीति के तहत काम कर रहे अखिलेश

अखिलेश यादव की एक सोची समझी रणनीति है। सपा प्रमुख ने स्थानीय और समुदाय विशेष के नेताओं के सहारे अपने वोट बैंक को मजबूत करने में जुटे हैं। अखिलेश ने अपने प्रदेश अध्यक्ष नरेश उत्तम पटेल को राज्य के यात्रा पर भेजा है जबकि एक अन्य नेता राजपाल कश्यप कश्यप स्वाभिमान यात्रा पर हैं। यह भी दिखने की कोशिश है कि सपा का प्रचार महज अखिलेश केंद्रित नहीं है बल्कि दूसरे नेता भी मोर्चा सम्भाले हुए हैं। रणनीति के मुताबिक अखिलेश यादव छोटी जातियों पर भी फोकस कर रहे हैं जिनका विधानसभा में पांच हजार से 40 हजार तक है। अगर ये वोट बैंक सपा के परंपरागत वोट बैंक के साथ जुड़ता है तो उसकी स्थिति काफी मजबूत हो सकती है। यह वही चुनावी रणनीति है जिसे 2017 के चुनाव में बीजेपी ने अपनाया था। छोटे-छोटे दलों से गठबंधन कर चुनाव में परिणाम अपने पक्ष में किया था।

 

अगर बसपा के इतिहास को देखें तो कांशी राम के समय में जिन नेताओं ने बसपा को ज्वाइन किया था। वे वो लोग थे जो न तो कांग्रेस के साथ जाना चाहते थे और न ही बीजेपी के साथ। इतना ही नहीं वे समाजवादी पार्टी में यादवों के वर्चस्व के साथ भी नहीं थे। उस समय मुलायम सिंह के सामने बीजेपी और कांग्रेस नहीं बसपा मुख्य चुनौती थी। सपा और बसपा ने मिलकर सरकार भी बनाया था। मगर 1995 के गेस्ट हाउस कांड के बाद दोनों के बीच बढ़ी दुश्मनी बढ़ गयी। हालांकि 2019 में इसे भुलाकर दोनों साथ भी आए लेकिन उसके बाद फिर सियासी दरार से बसपा के नेताओं के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया।

अब 20 साल बाद बसपा बीजेपी को टक्कर नहीं दे सकती और न ही कांग्रेस ऐसा करती दिखाई दे रही है। ऐसे में पुराने बसपा नेताओं के पास विकल्प क्या है? मुलायम सिंह और अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी में काफी फर्क है। मुलायम सिंह की सपा में दलित और अति पिछड़ों को उतना तवज्जो नहीं दिया जाता था लेकिन अखिलेश यादव इससे इतर अन्य जातियों को भी अपने पाले में ला रहे हैं। ऐसे में सपा ही बसपा के पुराने दिग्गजों के लिए मुफीद जगह है।