कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी (Chhath Puja) तिथि को डूबते सूर्य को अर्घ्य देकर उत्सव मनाया जाता है। छठ लोक आस्था का महान पर्व (Chhath is a great festival of folk faith.) होने के साथ ही साथ प्रकृति की उपासना और संतुलन का महापर्व भी है। यह चार दिनों का आयोजन होता है। जिसकी शुरुआत आज से यानि 17 नवंबर से नहाय-खाय के साथ हो गई है। इसके बाद खरना होता है। उसके षष्ठी को अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। उसके अगले दिन सुबह में उदयगामी सूर्य को अर्घ्य देने की परंपरा है।
हम सभी इसे महापर्व छठ के नाम से जानते हैं। वैसे तो छठ की शुरुआत चतुर्थी से ही नहाय खाय का परंपरा के साथ हो जाती है और फिर खरना , उषा अर्घ्य और सांध्य अर्घ्य के साथ यह त्योहार अब पूरे देश में धूमधाम से मनता है। इस व्रत भगवान सूर्य की आराधना पूरी लगन और निष्ठा के साथ की जाती है और छठी मैय्या का यह पर्व पूरी श्रृद्धा के साथ मनाया जाता है। मान्यता है कि इस व्रत को करने से आपकी संतान सुखी रहती है और उसे दीर्घायु की प्राप्ति होती है। वहीं छठी मैय्या निसंतान लोगों की भी खाली झोली भर देती हैं। आइए जानते हैं कौन हैं यह छठी मैय्या और क्या हैं इनसे जुड़ी पौराणिक कथाएं…
इनकी बहन हैं छठी मैय्या
पौराणिक ग्रंथों के अनुसार, भगवान ब्रह्मा की मानस पुत्री और सूर्य देव की बहन हैं षष्ठी मैय्या। इस व्रत में षष्ठी मैया का पूजन किया जाता है इसलिए इसे छठ व्रत के नाम से भी जाना जाता है। पुराणों के अनुसार, ब्रह्माजी ने सृष्टि रचने के लिए स्वयं को दो भागों में बांट दिया, जिसमें दाहिने भाग में पुरुष और बाएं भाग में प्रकृति का रूप सामने आया। सृष्टि की अधिष्ठात्री प्रकृति देवी के एक अंश को देवसेना के नाम से भी जाना जाता है। प्रकृति का छठा अंश होने के कारण इन देवी मां का एक प्रचलित नाम षष्ठी है, जिसे छठी मैय्या के नाम से जानते हैं।
छठ पर्व प्रियंवद और मालिनी की कहानी
पुराणों के मुताबिक राजा प्रियंवद की काफी समय से कोई संतान नहीं थी। तब महर्षि कश्यप ने पुत्र प्राप्ति के लिए यज्ञ कराकर प्रियंवद की पत्नी मालिनी को यज्ञ आहुति के लिए बनी को खाने को कहा। इससे उन्हें पुत्र हुआ, लेकिन वह मृत पैदा हुआ। प्रियंवद पुत्र को लेकर श्मशान गए और पुत्र वियोग में प्राण त्यागने लगे। उसी वक्त भगवान की मानस पुत्री देवसेना प्रकट हुईं और उन्होंने कहा, ‘सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण मैं षष्ठी कहलाती हूं। राजन तुम मेरी पूजा करो और इसके लिए दूसरों को भी प्रेरित करो।’ राजा ने पुत्र इच्छा से देवी षष्ठी का व्रत किया और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। यह पूजा कार्तिक शुक्ल षष्ठी को हुई थी। तब से छठ को त्योहार के रूप में मनाने और व्रत करने की परंपरा चल पड़ी।
भगवान राम और सीता ने किया था छठ का व्रत
अवध के राजा राम और उनकी पत्नी माता सीता ने भी छठ का व्रत किया था। लंका पर विजय पाने के बाद रामराज्य की स्थापना के दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान राम और माता सीता ने उपवास किया और सूर्यदेव की पूजा की। सप्तमी को सूर्योदय के वक्त फिर से अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आशीर्वाद प्राप्त किया था। यही परंपरा अब तक चली आ रही है।
सूर्य पुत्र कर्ण ने भी की थी पूजा
प्राचीन काल से यह भी मान्यता चली आ रही है कि महाभारत काल में सूर्य पुत्र कर्ण ने भी छठ की पूजा की थी। कर्ण भगवान सूर्य के परम भक्त थे। वह प्रतिदिन घंटों कमर तक पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते थे। सूर्य की कृपा से ही वह महान योद्धा बने। आज भी छठ में अर्घ्य दान की यही परंपरा प्रचलित है।
पांडवों को वापस मिली गद्दी
पौराणिक कथाओं में बताया गया है कि छठ का व्रत करने के प्रताप से ही पांडवों को उनका खोया हुआ राजपाट फिर से प्राप्त हो सका। जब पांडव अपना सारा राजपाट जुए में हार गए, तब द्रौपदी ने छठ व्रत रखा। उनकी मनोकामनाएं पूरी हुईं और पांडवों को राजपाट वापस मिल गया। लोक परंपरा के अनुसार, सूर्य देव और छठी मईया का संबंध भाई-बहन का है। इसलिए छठ के मौके पर सूर्य की आराधना फलदायी मानी गई है।