मायावती सपा के मुस्लिम वोटरों को अपनी ओर खींचने के लिए जुगत में थीं और उधर अखिलेश यादव ने मानस की चौपाइयों के जरिए शूद्रों के अपमान का सवाल उठाकर बसपा के दलित समर्थकों को लुभाने की कोशिशें शुरू कर दीं. फौरन सक्रिय हुई मायावती तुलसी और रामचरित मानस पर नहीं बल्कि सपा पर हमलावर हुईं.
अखिलेश यादव को 2 जून 1995 के गेस्ट हाउस कांड की याद दिलाई, जबकि एक दलित की बेटी को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने से रोकने के लिए सपा के लोगों ने उस पर जानलेवा हमला किया था. मायावती यहीं नहीं रुकीं. अखिलेश यादव को याद दिलाया कि संविधान में वंचित और पिछड़े समाज को एस. सी. , एस. टी. और और ओ बी सी का नाम दिया है और वे (अखिलेश) उन्हें शुद्र कहकर उनका अपमान कर रहे हैं.
मानस पर घमासान; दांव पर बसपा के दलित वोट
फिलहाल उत्तर प्रदेश में राम चरित मानस की जिन दलित , पिछड़ों और नारी विरोधी चौपाइयों को लेकर घमासान मचा हुआ, उसमें सपा और अखिलेश यादव खुद को इन वर्गों के हितैषी के तौर पर भाजपा और हिंदूवादी संगठनों से मोर्चा ले रहे हैं. जाहिर है कि मायावती के लिए यह स्थिति असहज करने वाली है। इस विवाद में उनकी स्थिति अब तक तमाशबीन जैसी रही है , जबकि दांव उनके वोट बैंक के लिए है. मायावती के लिए सक्रिय होना जरूरी हो गया था. फौरन ही उन्होंने सपा को निशाने पर लिया. उस गेस्ट हाउस कांड में की याद दिलाई, जिसमें सपा के लोगों ने उन पर जानलेवा हमला करके अपने दलित और नारी सम्मान (!) की असली तस्वीर दिखाई थी.
2022 के चुनाव ने एक बार फिर बसपा को दिखाया था आईना
उत्तर प्रदेश में 1989 के चुनावों से भाजपा, सपा और बसपा का विस्तार कांग्रेस के वोट बैंक की कीमत पर हुआ था. प्रदेश में लंबे अरसे से कांग्रेस हाशिए पर है. उधर बसपा की प्रदेश में आखिरी बड़ी कामयाबी 2007 के विधानसभा चुनाव थे , जिसमे उसने पूर्ण बहुमत हासिल किया था, लेकिन 2009 से उसकी हार का शुरू सफर ठहरने का नाम नहीं ले रहा. पिछले तीन विधानसभा चुनाव के नतीजों ने उसकी कमर तोड़ दी है. यही स्थिति इस दौरान के लोकसभा चुनावों में भी रही. 2019 में सपा से गठबंधन ने उसे लोकसभा की दस सीटें भले दिला दी हों लेकिन 2022 के विधानसभा चुनाव नतीजों ने उसे आइना दिखा दिया.
बसपा के सामने दलित वोट जोड़े रखना चुनौती
भाजपा 2024 में उत्तर प्रदेश में 2014 को दोहराना चाहती है , जब उसने 75 सीटें जीती थीं. सपा उसके विजय रथ को रोकना चाहती है. दोनो ही दलों को अपने परंपरागत समर्थक वर्ग के अलावा भी अन्य वर्गों के जुड़ाव की चाहत है. 2022 के विधानसभा चुनाव में भाजपा और सपा दोनो ही बसपा के आधार वोट में सेंधमारी करने में सफल रहे थे. उनका उत्साह बढ़ा हुआ है. अखिलेश यादव ने समाजवादियों के साथ अंबेडकरवादियों को जोड़ने का अभियान शुरू किया है.
बसपा के पाले से खींचे कई नेताओं को संगठन में बड़े पद देकर उन्होंने इस दिशा में कदम और आगे बढ़ाए हैं. मानस प्रसंग में अखिलेश और उनके साथियों के आक्रामक तेवर इसकी अगली कड़ी है. उधर भाजपा सरकारी योजनाओं और ग्रामीण क्षेत्रों में फैले अपने व्यापक संगठनात्मक ढांचे के जरिए दलितों और अतिपिछड़ों के बीच तेजी से सक्रिय है. मायावती इस खतरे को समझ रही हैं. प्रदेश की राजनीति में प्रभावी और प्रासंगिक रखने के लिए उनके सामने अपने दलित जनाधार को संजोए रखने और सपा के एकजुट मुस्लिम समर्थकों में हिस्सेदारी की दोहरी चुनौती है.